Wednesday, September 29, 2010

रोटी की जुगत

श्रद्धा मंडलोई
बीमारों का इलाज और दो जून रोटी की जुगत में कट रही जिंदगी
दुनिया मंे हम आए हैं तो जीना ही पडेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पडेगा...... मदर इंडिया का यह गीत सुनते ही संघर्षरत नरगिस का चेहरा हमारे सामने उभर आता है। फिल्म में नरगिस का किरदार हर मुश्किलों से लडते हुए अपने परिवार का पेट पालती है। इस फिल्म ने कई रिकार्ड तोडे और नरगिस की अलग छवि उभर कर सामने आई, लेकिन हमारे आसपास भी ऐसी कई मदर इंडिया है जिन्हें हम नहीं देख पा रहे है । आइए आपकी पहचान कुछ ऐसी ही मदर इंडिया से करवाते है जो घर के साथ बाहर की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रही है।
सुशीला बाई लकडियों का गटठा बांधने में व्यस्त कल की रोजी रोटी की तैयारी कर रही है। मंगलदास बाहर आंगन में रखे बिस्तर पर लेटे हुए है। जैसे ही मैंने घर में प्रवेश किया तो मंगलदास उठने की कोशिश करने लगे और सुशीला बाई ने रस्सी बांधते हुए मुडकर देखा और बोली काय कौन है। फिर मेरी तरफ मुडते हुए बोली का बात है। धीरे - धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। सुशीला बाई बताती है कि परिवार में कमाने वाली और बनाने वाली मैं ही हूं। छोटा बेटा और बहू दोनों टीबी के मरीज है और पति असहाय हो गए है। पैसों के अभाव में पति का इलाज भी नहीं हो पा रहा है । बेटे के इलाज के लिए थोडे बहुत रकम थी वह गिरवी रख दी। बीमारियों ने मुझे बहुत तोड दिया है। मजूरी करके या जंगल से लकडी बीनकर बेचती हूं जितना मिल जाएं उसी में कर खा रहे है। का करे जिंदगी तो कांटना पडेगा। सुशीला बाई खुद 60 बरस की है लेकिन परिवार की खातिर इस उम्र में भी दोनों जिम्मेदारिया बखूबी निभा रही है। वे बताती है कि लकडियों के गटठे के कभी किसी ने गरीब समझकर 50 रूपए दे दिए तो खूब हो जाता है नही तो 20-30 रूपए मंे ही घर चलाना पडता है। रोज खाने को मिले ऐसा जरूरी नहीं हैं। झोपडी नुमा घर तीन टुकडों में बंटा हुआ है एक तरफ बडा और दूसरी तरफ छोटा बेटा रहता है, लेकिन छोटे बेटे और पत्नी को जब से टीबी हुई है मां ही बनाकर खिला रही है। राशन कार्ड पर जितना राशन मिल रहा है बस उसी पर निर्भर है। राशन में भी सिर्फ 20 किलो गेंहू और 2 किलो शक्कर मिल रही है। पांच लोगों में वह कब तक पूरा पडेगा। झोपडी की मरम्मत के लिए इंदिरा आवास के तहत पंचायत से सात हजार रूपए का चैक मिला है, लेकिन चैक टूट ही नहीं रहा है उसे लेकर इधर - उधर घूम रहे हैं। सुशीला बाई से जब कहा कि आपने गांव की समीति से इस बारे में कोई बात की तो उन्होंने कहा कि कौन सी समीति। यानि ग्रामीणों को यह नहीं पता कि यदि उनके स्वास्थ्य सेे जुडी कोई समस्या है तो उसे ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति के साथ बांट सकते हैं। सुशीला बाई ने कहा कि इलाज में मेरे जितने गहने थे वे भी बिक गए और अब हाथ में कुछ नहीं है। ऐसे हालात में समीति उनकी सहायता कर उन्हें दीनदयाल अंतोदय योजना या अन्य योजना का लाभ दिला सकती थी। लेकिन समीति की भूमिका यहां भी लचर ही रही।
यह तो शुरूआत है पिपरिया से करीब 10 किलोमीटर दूर ग्राम रिछैडा में ऐसी कई महिलाएं है जो परिवार का पालन कर रही है। गांव की आशा हेमलता दुबे 36 वर्ष के पति कैलाश दुबे विकलांग है। हेमलता ने बताया कि शादी के दस साल बाद गले की नस चिपट जाने से विकलांग हो गए थे। तब से घर की जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई। हेमलता के तीन बच्चे है पति की हालत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। लंबे समय तक इलाज कराने के बाद भी कोई अंतर नहीं पडा। नागपुर के सीम्स अस्पताल में भी दिखाया लेकिन कुछ अंतर नहीं आया । हेमलता ने बताया कि डाक्टर का कहना है कि आपरेशन में रिस्क है और जरूरी नहीं की इनकी जान बच पाए । डाक्टर के ऐसा कहने के बाद घर वालों की राय ली तो सभी ने कहा कि वे अभी दिख तो रहे है तुम तो घर आ जाओ तो घर ले आए । अब पैसा भी इतना नहीं है कि रोज दवा करा सके । टीकाकरण और जितने केस मिल जाएं उसी पर परिवार चल रहा है। पति बिल्कुल असहाय हो गए है वे बिस्तर पर ही रहते है। नहलाने से लेकर शौच सहित सभी काम बिस्तर पर ही होते है। दिन ब दिन उनकी हालत गिरती जा रही है।
पैतीस वर्षीय मुन्नीबाई के पति का एक साल पहले निधन हो गया उनके पांच बच्चे है। मुन्नीबाई मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पाल रही है। बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलने के कारण बच्चे कमजोर भी है। पचास वर्षीय गौरा नागवंशी अपनी मां और भतीजी के साथ रहती है और रोज मजदूरी करके घर चला रही है। गौरा बाई बताती है कि यदि यहां की बाईयां काम न करें तो आदमी भूखे मर जाएंगे । गौरा की मां बीमार है वे गिर गई थी तब से चलने में बहुत परेशानी है। उनसे कुछ करते नहीं बनता। पैसा नहीं होने के कारण उनका इलाज भी नहीं हो पा रहा है। सरकारी अस्पताल में दिखाया था मगर आराम नहीं लगा । पचपन वर्षीय घसीटी बाई भी अपने दम पर अपने परिवार का भरण पोषण कर रही है।
गावं में अधेड उम्र की महिलाएं हर समस्या का डट कर सामना कर रही है। जितनी भी महिलाएं अपने दम पर घर चला रही है उनके परिवार में कोई न कोई बडी बीमारी से ग्रस्त है। मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाली महिलाओं को बाहर से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पा रही है। इस उम्र मंे भी जैसे बन रहा है वैसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है। ये कामकाजी महिलाएं बताती है कि कभी -कभी तो जिंदगी बहुत बोझ लगने लगती है लेकिन फिर घर वालों का मुंह देखकर जीना पडता है। ऐसा लगता कि कि आखिर क्या करें कि रोज रोटी और घरवालों का इलाज दोनों काम अच्छे से चलते रहे, लेकिन पढे - लिखे नहीं होने के कारण कोई दूसरा काम भी नहीं मिलता है। फिर जैसा काम मिलता है करना पडता है। सुुशीला बाई कहती है कि बस रोज यही सोच कर घर से निकलती हूं कि इतना मिल जाएं कि घर वालों को भूखा न सोना पडे। कभी - कभी तो ऐसा होता है कि कंटोल की दुकान से राशन लेने के लिए भी पैसा नहीं होता है।

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना| | धन्यवाद|

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  2. बस रोज यही सोच कर घर से निकलती हूं कि इतना मिल जाएं कि घर वालों को भूखा न सोना पडे

    न जाने कितनी सुशीला बाई इसी समस्या से जुझ रही हैं नित.

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