Monday, September 6, 2010

कम उम्र में बडे बोझ के भार से दब जाती हैं बेटियां

चार साल की उम्र में उसके सिर पर घडा रखने की जिम्मेदारी आ जाती है। छह साल की होते ही अपने छोटे भाई - बहनों और चूल्हा-चोका संभालने की जिम्मेदारी और इसके दो साल बाद उसकी पढाई छूट जाती है । वह बच्ची की उम्र में आधी मां बन जाती है। बालिक होने के पहले ही उसने आधी जिंदगी जी ली है। कुछ ही समय बाद माता - पिता के लिए बेटी सयानी हो जाएगी और अब उसकी डोली उठने की तैयारी होने लगती है। 15 - 16 साल की होते होते उसका ब्याह हो जाता है। शादी के कुछ ही समय बाद वह पूरी मां बन जाती है और साथ ही दूसरे घर के पूरे सदस्यों की जिम्मेदारी भी उस पर आ जाती है। अब वह बच्चों की जिम्मेदारी संभालने के साथ बाहर का काम भी करती है। इतनी बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालने वाली को ही आखिर हमारे समाज में बोझ क्यों समझा जाता है। कुछ ऐसी ही कहानी है भारतीय महिलाओं की, जो बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालते-संभालते उम्र से पहले ही बडी हो जाती है। सभी का ख्याल रखते-रखते वह अपना ख्याल रखना भूल जाती है। बस इन्हीं कारणों से देश की महिलाएं कमजोर होती है और उनमें एनीमिया, हिमोग्लोबिन कम होता है। यहीं लडकी जब मां बनती है तो कमजोर होने के कारण बच्चों में कुपोषण होता है और शिशु मृत्यु और मातृत्व मृत्यु के लिए भी कहीं न कहीं यहीं जीवन शैली जिम्मेदार है। देश की महिलाओं और बच्चों में होने वाली समस्यों का सबसे बडा कारण गरीबी और दूसरा कारण महिलाओं को कम उम्र में सौपी जाने वाली जिम्मेदारियां है।
जहां एक ओर महिलाएं अंतरिक्ष में कदम रख रही है और हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है वहीं गांवों में आज भी महिलाएं लंबा घूंघट लेती है और 15 साल की उम्र में बच्चों की मां बन चुकी होती है। चाहे मघ्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के ग्राम पचुआ ,रिछैडा हो या छिंदवाडा जिले के बोरीमाल और कोकट लगभग सभी ग्रामों की यही कहानी है। वर्तमान में भारत में करीब 56 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हंै। इसका सबसे बडा कारण गांव की लडकियों का अपनी उम्र से पहले ही बडी होना माना जा सकता है।
गांव में अब भी महिलाएं पुरूषों के सामने पर्दे में ही रहती है और घर के बडों की उपस्थिति में नहीं बोलती। पहुंच मार्ग से अंदर के गांवों में हालात बहुत ही गंभीर है यहां महिलाएं न तो अपनी उम्र ठीक से जानती है और अन्य जरूरी बातों से भी अंजान है। यहां उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। कई गांवों में आंगनबाडी कार्यकर्ता दूसरे ग्रामों से आती है इसलिए वह उन्हें पर्याप्त समय नहीं दे पाती और कुछ स्थानों पर सहायिका बहुत ही कम पढी-लिखी है उन्हें स्वयं कई बातों का ज्ञान नहीं है। महिलाओं को गर्भवस्था के दौरान कई बातों का ध्यान रखना होता है। घर के बढे तो उन्हें समझाते है लेकिन मेडिकल की दृष्टि से भी कई बाते जरूरी होती है, जो उन्हें जानना जरूरी है, लेकिन कोई उन्हें सही सलाह देने वाला नहीं है। जहां तक माॅनीटरिंग का सवाल है तो पहुंच मार्ग से दूर बसे गांव में साल में एक या दो बार ही निरीक्षण होता है। जहां तक ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति की बात करें तो अभी कई ग्रामों में यह समिति नहीं बनीं है। जहां बनी है वहां समीति के सदस्यों को ही पता नहीं है कि वे समीति का हिस्सा है तो अपनी जिम्मेदारी निभाना तो दूर की बात है। समिति की सदस्य एवं सचिव आशा कार्यकर्ता होती है उनकी भी अपनी कई समस्याएं हैं जैसे कुछ क्षेत्रों की महिलाएं आसानी से बातों को नहीं समझती ऐसा ही उदाहरण होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के ग्राम रिछैडा में सामने आया। रिछैडा आदिवासी बहुल क्षे़त्र है और जंगल से लगा हुआ है। वहां की आशा कार्यकर्ता ने बताया कि टीका लगवाने से लेकर परिवार नियोजन सभी के लिए महिलाओं को समझाना बहुत टेढी खीर है। कई बार यदि महिलाएं मान जाएं तो उनके पति और घर के बडो को समझाना मुश्किल हो जाता है। कई सयानी महिलाएं कहती है कि हमें इतने बच्चे हो गए हमें तो कोई टीके नहीं लगे और सब बच्चे चंगे भले जन गए , जो तो बस ढकोसला है। यानि महिलाओं के निर्णय वे खुद नहीं लेती या तो उनके पति लेते है या उनके बडे - बुजुर्ग। महिला घर के हर सदस्य का पूरा ख्याल रखती है, लेकिन उसकी जरूरत और उसका ख्याल रखने वाला कोई नहीं होता है। उसके निर्णय में भी सभी का राजी होना जरूरी होता है।
आशा कार्यकर्ता कहती है कि महिलाओं को समझाने के लिए उनका शिक्षित होना बहुत जरूरी है, लेकिन जहां तक पढाई का सवाल है तो लडकियों को पढाने की अपेक्षा घर का काम कराना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। इसीलिए सपना कह बैठती है किं चाहती तो मैं भी हूं पढना पर छोटे भाईयों को कौन संभालेगा मां तो बनहारी पर जाती है मासूम सपना अपनी मासूमीयत में इतनी बडी बात कह बैठती है जो हमारे गांवों की सच्चाई को बयां करती है। सपना जैसी ही न जाने कितनी लडकियां हमारे गांवों में अपनी कई इच्छाओं को दबाएं अपना जीवन कांट रही है। इनमें से कई तो इसी को अपना जीवन मान चुकी है। इन लडकियों के नाम स्कूल में दर्ज होेते है , लेकिन मां के बनहारी पर जाने के कारण वह चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाती। वहीं यह भी देखा गया कि जब लडकी समझदार हो जाती है तो उसकी पढाई खुद -ब -खुद छूट जाती है। पैदा होते ही उसकी जिम्मेदारियां अपने आप ही तय हो जाती है लडका और लडकी के बीच आज भी जमीन - आसमान का अंतर है। पानी भरने से लेकर घर का हर काम सिर्फ वहीं करेगी क्योंकि वह लडकी हैै। जंगल से महुआ, गुल्ली और अचार इत्यादि बीनना उसी का काम है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम के दौरान कई तरह की सच्चाई सामने आई। 15 साल की राजाबाई जो पहली बार मां बनने जा रही है टीका लगवाने पहुंची तो बहुत घबरा रही थी। उससे जब पूछा कि इतनी कम उम्र में तुम्हारी शादी हो गई तुम्हे कैसा लगता है तो उसका जवाब था हमारे यहां ऐसा ही होता है। गांव में संपन्न परिवार के बच्चे ही पढने जाते है मजदूर वर्ग व अतिगरीब परिवार के बच्चे तो थोडा बहुत पढकर पढाई छोड देते है। जैसे ही लडकी कुछ बडी लगने लगती है उसकी शादी की बात शुरू कर दी जाती है और कब वह बच्चों की मां बन जाती है उसे भी पता नहीं चलता। गांव में सब कुछ अंदाजे से किया जाता है। गांव में आज भी जमकर बाल विवाह हो रहे है। जब मुख्यमंत्री द्वारा चलाए जा रहे कन्यादान योजना में नाबालिक लडकियों की शादी के मामला उभर कर सामने आए तो गांव की वास्तविकता क्या होगी इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
होशंगाबाद और छिंदवाडा के गांवों मंे भ्रमण करने पर वहां की महिलाओं को बहुत करीब से जानने का मौका मिला। गांव की महिलाएं दुनियादारी से बहुत दूर है। बचपन से ही बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालने के कारण वे अपने स्वाथ्य का ख्याल नहीं रख पाती है और इसी का नतीजा है कि हमारा देश महिलाओं और बच्चों से संबंधित बीमारियों में अव्वल है। बचपन से ही उम्र के मुताबिक पोषण आहार नहीं मिलने के कारण और स्वास्थ्य का ख्याल नहीं रखपाने के कारण बच्चों में कुपोषण और महिलाएं एनीमिया और हिमोग्लोबिन की कमी का दंश झेल रही है । लडकियों की उम्र से पहले शादी हो जाने और गर्भवति होने पर कई तरह की समस्याएं से दो-चार होना आम बात हैै। इसी के कारण मातृत्व और शिशु मृत्यु दर को लक्ष्य में खास कमी नहीं आ पा रही है। सामान्य दिन हो या गर्भवस्था के दौरान दोनों ही समय में महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया जाता है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम कवर करने के पर महिलाओं के स्वास्थ्य को करीब से जानने का मौका मिला। ग्रामों में ज्यादातर महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया गया और लगभग सभी में हिमाग्लोबिन की कमी भी थी। पिपरिया विकासखंड के ग्राम तरौनकला की एएनएम ने बताया कि यदि खून का रंग लाल नहीं होता फिका सा होता है तो उसमें हिमोग्लोबिन की कमी है और मेरे सामने बनाई गई लगभग सभी स्लाइड का रंग फीका ही था । टीका लगवाने आई रेखा दुबे गर्भवति है जब उन्होंने अपना वजन किया तो 45 किलो निकला जबकि उनका कहना था कि पिछले महिने भी उनका वजन 45 किलो ही था । जबकि गर्भ के दौरान हर महिने वजन बढ जाता है वहीं भागवती बाई 27 साल की है और उनका वनज मात्र 35 किलो ये तो चंद उदाहरण हैं गांव की अधिकतर महिलाओं का वजन अपनी उम्र से काफी कम होता है। इस तरह की महिलाएं ही हाई रिस्क में आती है, लेकिन उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता और यह उन्हीं 15 प्रतिशत में शामिल है, जिनके केस बिगड सकते हैं।
भारत की आबादी में आधे से अधिक महिलाएं और 24 प्रतिशत पुरूष एनीमिया के शिकार है। राष्टीय परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक एनीमिक महिलाओं का प्रतिशत बढता जा रहा है। जहां एनएफएचएस 2 में 52 फीसदी शादी शुदा महिलाएं एनीमिक थी वहीं एनएफएचएस 3 में 56 हो गई। वहीं एनएफएचएस 2 के मुताबिक 50 प्रतिशत गर्भवति महिलाएं एनीमिक थी और एनएफएचएस 3 में बढकर 59 हो गया है । एनएफएचएस 3 के मुताबिक मध्यप्रदेश में 6 से 35 माह के 82.6 प्रतिशत बच्चे एनिमिक पाएं गए जो एनएफएचएस 2 में 71.3 थे ।

7 comments:

  1. बेटियां तो बेटियां हैं जितना कहें उतना कम - मार्मिक तथ्यों के साथ प्रशंसनीय आलेख

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  2. ठीक कहा है आपने...वैसे समस्या की जड़ में अशिक्षित होना है..लेकिन मैने इस तरह की मानसिकता के पढ़े-लिखे लोग भी देखे हैं। बहुत अच्छा लिखा है

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  3. गम्भीर विषय …………गम्भीर चिन्तन्………………सोचने को मजबूर करता है।

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  4. लगभग सभी स्थितियों का चित्रण कर दिया आपने...

    वर्ड वेरिफ़िकेशन हटा लें तो टिप्पणीकारों को सुविधा होगी

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  5. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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