Wednesday, May 20, 2020

महामारी में सरकार की निष्ठुरता जग जाहिर पूर्व नियोजन के बिना लगाया लाॅकडाॅउन

औरंगाबाद में मालगाड़ी से कटे 16 प्रवासी मजदूर, और्रया सड़क हादसे में 24 मजदूरों की दर्दनाक मौत हादसे थमें नहीं है और ना ही मजदूरों के पैर थमे है। अभी भी देषभर के अलग- अलग हिस्सों से मजदूरों के सड़कों पर चलने की तस्वीरें दिखाई दे रहीं है। मजबूर मजदूरों की इस अंतहीन व्यथा के लिए जिम्मेदार केंद्र सरकार व तमाम राज्य सरकारें है। आखिर इन मजदूरों की गिनती सरकार के लिए नागरिकों में है भी या नहीं । जिस तरह की दर्दनाक, रूला देने वाली मजदूरों की दांस्ताने दुनिया के सामने है। विभिन्न सामाजिक संस्थाएं व समाजसेवी जन अपनी ओर से इन मजदूरों के खाने- पीने का इंतजाम कर रहे है। लेकिन सरकारे निष्ठुरता की हदे पार कर रहीं है। प्रषासन मजदूरों के षवों और घायलों को एक साथ भेजने जैसी असंवेदनहिनता का दर्षन करा रहा है। मजदूरों की हादसों में मृत्यु होने के बाद चैतरफा विरोध होने के बाद सरकारे अपनी कुर्सी बचाने के लिए झूठी संवेदनषीलता का प्रदर्षन कर मजदूरों को और परेषान कर रहीं है। उन्हें राज्यों की बाॅर्डर पर रोका जा रहा है। कुछ बसें व ट्रेन चलाकर उन्हें घरो तक पहुंचाने की कमजोर कोषिषेकी जा रहींहै । पैदल चलते मजदूर महामारी की पहचान कोविड - 19 जैसी महामारी को लेकर सरकार की योजनाएं पूर्णतया असफल रहीं है। नोटबंदी की तरह अचानक देषभर में लाॅकडाउन घोषित कर दिया गया। उस समय सरकार ने इन आठ करोड़ प्रवासी मजदूरों के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। तमाम जगद्दोजहत व परेषानियां झेलते हुए एक - दो नहीं हजारों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर जाते मजदूर इस संकट की सबसे दर्दनाक तस्वीर है। क्या सरकरों को इनकी कोई जानकारी नहीं थी ? क्या सरकार को नहीं पता था कि ये लोग दिहाड़ी मजदूरी करते है? प्रधानमंत्री ने कहा था कि घर पर रहिए, घर पर रहिए और सिर्फ घर पर ही रहिए। तब प्रधानमंत्री जी नहीं जानते थे कि देषभर में प्रवासी मजदूर किस तरह से एक घर में किराए से कितनी मुष्किल में रहते है। तो सिर्फ घर पर किस प्रकार रह सकते है ? क्या सरकार ने तमाम मकानमालिकों से इस बात के लिए लिखित दस्तावेज लिए थे कि वे इस मुष्किल घड़ी में अपने किराएदारों से किराया नहीं मांगेंगे या मजदूरों के लिए पहले से रहने के अन्य व्यवस्थित इंतजाम किए थे ? कंेद्र व राज्य सरकारों ने जरूरतमंदों के लिए कुछ नहीं किया । बिना तैयारी के बस लाॅकडाॅउन घोषित कर दिया। जबकि यदि मार्च के षुरूआती दौर में ही इन तमाम मजदूरों को व्यवस्थित ढंग से ट्रेनों व बसों के माध्यम से अपने - अपने घर पहुंचाया जा सकता था। सरकार ने मजदूरों के प्रति घोर लापरवाही व गैर जिम्मेदारी का प्रदर्षन किया जिसका खामियाजा मजदूरों के मासूम बच्चों, गर्भवती महिलाओं व स्वयं मजदूरों को भोगना पड़ रहा है। महामारी से तो नहीं लेकिन मजदूर भुखमरी व हादसों के षिकार अधिक हो रहे है। लाषों के लिए ट्रेनें चलाई लाॅकडाॅउन लगाने के बाद जब षुरूआत में मजदूर पैदल चलते दिखे और सोषल मीडिया सहित कुछ मीडिया संस्थानों ने इनके संबंध में बात करना षुरू किया । जैसे - जैसे मजदूरों की व्यथा उजागर हुई तो कुछ जगहों से बसों की सुविधा षुरू की गई लेकिन बाद में उसे बंद कर दिया । लाॅकडाॅउन के चरण बढ़ते चले गए और मजबूर मजदूर वापस पैदल चलने को मजबूर हो गए। फिर वे हादसों का षिकार होने लगे बाद में प्रषासन ने उनके षवों को ट्रेन से पहुंचाने का काम किया । अगर पहले ही उनके लिए अधिक से अधिक वाहनों का प्रबंध कर दिया जाता तो इनती भयावह स्थितियों का षिकार होने से मजदूर बच जाता। अभी भी सरकारे मजदूरों की मदद के लिहाज से नहीं अपने कुप्रषासन के चेहरे को छिपाने के लिए मजदूरों को जगह - जगह रोककर उनके लिए बसों के प्रबंधन करने की बाते कर रहीं है। मंगलवार को भी बांद्रा में मजदूरों की भारी भीड़ उमड़ आई , गाजीपूर बाॅर्डर पर भी भारी संख्या में प्रवासी मजदूर इकट्ठा हुए। यानि सरकार के वर्तमान प्रयास भी मजदूरों की संख्या के हिसाब से नाकाफी साबित हुए है। बसों पर राजनीति बेबस मजदूर की आंखों में बस किसी तरह अपने गांव पहुंच जाने की बेबसी है। मजबूर मजदूरों पर हो रहीं खोखली राजनीति से बेखबर मजदूर अपने गंतव्य तक पहुंचने की नाकाम कोषिषे कर रहा है। मजदूरो को तुरंत मदद करने के बजाएं फिलहाल बसों को लेकर राजनीति करने में नेतागण व्यस्त है। पिछले 55 दिनों से प्रवासी मजदूरों की पैदल चलने व छुपते छुपाते किसी तरह अपने घर पहुंचने और हादसों के षिकार होेने की तस्वीरे सामने आने के बाद कांग्रेस ने प्रवासी मजदूरों के लिए एक हजार बसों का इंतजाम करने की इजाजत यूपी सरकार से पत्र के माध्यम से मांगी। प्रियंका गांधी ने यूपी सरकार को इस बाबत पत्र लिखा इसके बाद भाजपा ने सहमति देकर पत्राचार की राजनीति की षुरूआत कर दी । सहमति देने के बाद बसों का फिटनेस, लाइसेंस जैसे कागजी बातों के जरिए अडंगा लगाना षुरू कर दिया। कागजी राजनीति जारी है और बसों के पहिए थमे हुए है। बेवजह खींजती दिखीं वित्त मंत्री बीस लाख हजार करोड़ के पैकेज का विस्तृत विवरण देने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को लगातार चार दिनों तक प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ी। अंतिम प्रेस कांफ्रेंस के दिन राहुल गांधी पर पूछे गए एक सवाल पर उन्हें इतना गुस्सा आ गया जिसने सरकार की नाकामयाबियों के नकाब को उतार दिया। खींजते हुए उन्होंने कहा कि राहुल गांधी ने सड़क किनारे बैठे मजदूरों से बात कर उनका समय खराब कर दिया। इससे तो अच्छा होता कि वे उनका सामान लेकर उनके साथ पैदल चलते। उनके लिए बसों का इंतजाम करते । कह तो इस तरह रहीं थी जैसे ना जाने कितने भाजपाई अभी तक मजदूरों का सामान उठाने में मदद कर चुके हो । अब जब प्रियंका गांधी ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया तो प़त्राचार की राजनीति षुरू कर दी। राहुल गांधी के प्रष्न पर निर्मला सीतारमण की खींज ने सबकुछ उजागर कर दिया है। साफ है कि प्रवासी मजदूरों की वास्तविक तस्वीर हर आम आदमी का दर्द बनती जा रहीं है और उनकी तरफ सरकार की लापरवाही , कुव्यवस्था उजागर हो चुकी है।

Wednesday, May 13, 2020

मजबूर मजदूर पर चुप्पी साधे रहे प्रधानमंत्री , पैदल अपने गांव जा रहे मजदूर आत्मनिर्भरता की मिसाल

महामारी के बाद मजबूर हुए मजदूरों की पीड़ादायक अंतहीन समस्याओं को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अभिभाषण में कुछ नहीं कहा। लाॅकडाउन के बाद देषभर में मजदूरों का पलायन जारी है । पलायन के इस दौर में मजदूर की पीड़ा के झकझौर देने वाली तस्वीरे रोज न्यूज चैनलों व अखबारों के माध्यम से देख रहे है। औरंगाबाद हादसे में जान गंवाने वाले मध्यप्रदेष के 16 मजदूरों को देष भूला नहीं है। अभी भी रोज कोई न कोई मजदूर भूख, गर्मी व दुर्घटना में दम तोड़ रहा है। 40 - 45 डिग्री तापमान में गर्भवती महिलाएं, मासूम बच्चे हजारों किलोमीटर की यात्राएं कर रहे है। भरी गर्मी में भी कई मजदूर पैदल चल रहे है तो कई अपना सामान बेचकर , कहीं से पैसा उधार लेकर किराए पर गाड़ी करके अपने गंतव्य की ओर निकल पड़े है। हालात से मजबूर इन मजदूरों पर चैतरफा मार पड़ रहीं है। हालात के मारे मुंबई के भिवंडीे से लखनउ के लिए निकले मजदूरों ने एक टैंपों किया जिसमें करीब 19 मजदूर फंसकर जैसे तैसे बैठे। कुछ दूर आगे चलकर मुंबई में ही हाईवे पर जा रहीं तेज रफतार कार ने टैंपों को पीछे से टक्कर मार दी जिसमें ड्राइवर और उसके परिवार की मौत हो गई। इसी तरह दिल्ली से लखनउ जाने के लिए साइकिल पर निकले मजदूर को एक कार ने पीछे से टक्कर मार दी उसकी मौके पर ही मौत हो गई। इसी तरह फतहपुर से निकले एक मजदूर की रायबरेली में मौत हो गई। वहीं कुछ ऐसे भी है जिनके प्राण अपने गृह ग्राम में जाकर निकल गए। सोचिए क्या बीत रहीं होगी इन मजदूरों के परिवारों पर जानवरों की तरह ट्रकों में भरकर , तमाम परेषानियों से जूझते हुए , बचा कुचा सबकुछ बेचकर सिर्फ अपने गांव की ओर निकले मजदूरों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक षब्द तक नहीं बोला ? ठीक है आपने 20 हजार करोड़ के आर्थिक पैकेज की धोषणा कर दी लेकिन इसका फायदा आज सड़कों पर चल रहे मजदूरों को तो नहीं मिलेगी और ना ही उन्हें इस घोषणा के बारे में कुछ पता होगा । फिलहाल फौरी तौर पर उनके लिए प्रधानमंत्री क्या कर रहे है इसके बारे में कुछ भी उन्होंने नहीं कहा। हर तरफ से मार खा रहे मजदूरों को लेकर आपकी वर्तमान में क्या योजना है इसके बारे में आपने अपनी नीति स्पष्ट नहीं की। प्रधानमंत्री ने अपने अभिभाषण में कहा कि अब योजनाओं का पूरा लाभ लाभार्थियों तक पहुंचता है लेकिन धरातल पर ऐसा होता तो नहीं दिख रहा । जिस वक्त लाॅकडाउन की षुरूआत हुई थी उस वक्त सरकार ने और रिजर्व बैंक ने कहा था कि देष में खाद्यान की कोई कमी नहीं है। लेकिन सड़कों पर हजारों किलोमीटर पैदल चलते मजदूरों को देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि उन्हें राषन मुहैया कराया गया होगा? खाने - पीने और सुरक्षा की व्यवस्था होती तो कौन मजदूर अपनी जान पर खेलकर इतना लंबे सफर के लिए इस तरह निकल पड़ते। यहीं नहीं गर्भवती महिलाएं जिनका 8 वां 9 वां महिना चल रहा है। चिलचिलाती धूप में बिना पानी , खाने के लिए बस लगातार चली जा रहीं है। रायपुर से ऐसी तस्वीर सामने आई जिसमें महिला ने सड़क पर बच्चे को जन्म दिया दो घंटे के विश्राम के बाद मजदूरों का दल अपने गंतव्य के लिए फिर रवाना हो गया । नवजात बच्चे को लेकर मां फिर हजारों मील की यात्रा के लिए पैदल चल पड़ी। 20 हजार करोड़ के आर्थि क पैकेज का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री को अर्थव्यवस्था की नींव मजदूरों की याद नहीं आई। सूरत में हजारों की तादात में मजदूर लगभग रोज विरोध के लिए सड़कों पर उतर रहे है। सोमवार को तो तमाम मजदूर हाथ में घर पहुंचाने से जुड़े बैनर लेकर विरोध प्रदर्षन करते नजर आएं। लेकिन राज्य सरकारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रहीं है। कई किलोमीटर की यात्रा तय कर मप्र पहुंचे मजदूरों को महाराष्ट्र और मप्र की बाॅर्डर पर रोक दिया गया। चिलचिलाती धूप में मजदूर परेषान होते रहे। आखिर सारे जुल्म मजदूरों पर ही क्यों ढाएं जा रहे है। कालाबाजारी करने वाले भी मजदूरों से पैसा वसूल रहे है दो हजार की साइकिल 4 हजार में दे रहें है। अपनी गाड़ी में बैठाने के लिए मनमाना किराया वसूल कर रहे है। अपना सबकुछ लूटा - पिटा कर जैसे - तैसे घर पहुंच रहे मजदूरों को भी आसानी से गांव में घुसने नहीं दिया जा रहा है। कई मजदूरों को उनके गांव के बाहर ही रोक दिया गया है । छोटे बच्चे है उनके लिए दूध पानी तक का प्रबंध नहीं हएो पा रहा है। लाखों मजदूरों की अंतहीन पीड़ा दायक कहानियां चारों तरफ है जहां देखेंगे उनकी ऐसी समस्याएं नजर आएंगी आपकी नजरें षर्म से झुक जाएंगी। इसलिए यदि किसी काम से घर से निकले हाथ में एक थैले में पानी , कुछ खाने का सामान , चप्पल साथ लेकर निकले यदि कोई मजदूर दिखे तो उसकी इतनी मदद तो कर सकें। चल - चल कर उनकी चप्पलें घिस गई है ऐसी तस्वीरें आई थी जिसमें मजदूर ने प्लास्टिक की बाटल को पैर के नीचे रखकर सफर किया था। मजदूरों की इन भयावह , पीड़ादायक समस्याओं का मजदूर तुरंत समाधान चाहता है और प्रधानमंत्री योजना बनाकर उन्हें लाभ देने पर विचार कर रहे है क्योंकि मजदूर मजबूर है। सरकार उन्हें अपनी उंगलियों पर नचाएंगी और बेचारा मजदूर क्या करेगा।

Monday, May 4, 2020

अतुलनीय, पूजनीय , प्रेरणास्त्रोत है प्रकृति

कोरोना के कहर के चलते दुनिया का बड़ा हिस्सा लाॅकडाॅउन है। जिसके चलते विषाणु उगलने वाले कारखाने बंद है। प्रकृति को हानि पहुंचाने और प्रकृति की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने वाली इंसानी गतिविधियों पर रोक लगी हुई है। दुनिया के अलग - अलग हिस्सों में अलग - अलग अवधियों के लाॅकडाॅउन के चलते दुनियाभर में वायु , ध्वनि व जल प्रदूषण में कमी आई है। इसका प्रमाण स्वयं प्रकृति दे रहीं है। देष के सबसे प्रदूषित रहने वाले षहरो ंमें प्रदूषण का मानक स्तर संतोषजनक है। दुनिया भर की बड़ी नदियों का पानी स्वतः स्वच्छ हो गया है। नदियों व समुद्र के अंदर रहने वाले जीवों की दुनियां भी प्रसिद्ध फोटोग्राफर के कैमरे में कैद हो रहीं है। वहां की अदभुद दुनिया अब उपर से भी साफ नजर आ रहीं है । देष की प्रसिद्ध महानदी गंगा को साफ करने के लिए अब तक तमाम सरकारें करोड़ों रूपए बहा चुकी है लेकिन बावजूद इसके गंगा स्वच्छ व निरमल नहीं हो पाई। जो करोड़ों रूपए नहीं कर सकें वह लाॅकडाॅउन ने कर दिया यानि इसका सीधा सा मतलब है कि इंसानी गतिविधियों पर रोक ने प्रकृति को स्वयं में रहने का समय दिया और प्रकृति की षक्ति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनियाभर में बड़ी नदियांे ने स्वयं को साफ कर लिया है। वायु प्रदूषण कम होने से आसमान साफ व स्वच्छ नजर आने लगा है। सिर्फ नदियां ही नहीं पषु, पक्षियांे और अनेक जीवों की हलचल भी तेज हो गई है। उन्हें भी अब आसमान अपना नजर आ रहा है। दुनिया में उनका भी हिस्सा है अब ये वे भी महसूस कर रहे है। मुंबई जैसे अतिव्यस्त षहर में पक्षियों की चहलकदमी के कई वीडियों वायरल हुए जिनमें उनकी खुषी साफ नजर आ रहीं है। यहीं नहीं हानिकारक धुएं की वायुमंडल में कमी होने के बाद ओजोन परत में दिखाई देने वाला छेद लुप्त हो गया है। ओजोन परत सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों को पृथ्वी पर आने से रोकती है। यह किरणे प्रकृति सहित मानव जीवन के लिए घातक होती है। वैज्ञानिकों के लिए यह बड़े षोध विषय था कि अेाजोन परत को कैसे रिकवर किया जाएं । सोचिए इतनी वृहद समस्या हानिकारक धुंआ नहीं होने से स्वतः हल हो गई। प्रकृति में आ रहे इस सकारात्मक परिवर्तन पर विचार करना आवष्यक है। स्वयं पर आई विपत्ति को प्रकृति ने स्वतः हल कर लिया इसी से आप प्रकृति के षक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए आवष्यक है कि हम प्रकृति पर बिना वजह अत्याचार करना बंद करें । प्रकृति निःस्वार्थ भाव से मनुष्य को अपना सर्वस्व अर्पण कर देती है। तो हमारा भी तो प्रकृति के प्रति कुछ कत्र्तव्य बनता है। हमें संभलना होगा प्रकृति पर व्यर्थ छिनने के बजाएं जितना आवष्यक हो उतना लें और उतना उसे देने का कत्र्तव्य भी निभाएं।

गरीबी सबसे बड़ा दुर्भाग्य

कोरोना काल में सबसे अधिक मार गरीब तबके पर पड़ रहीं है। चैतरफा परेषानियों से घिरे इस तबके के उद्धार के लिए कोई प्रयास अब तक सफलतापूर्वक नहीं किए गए है। अपने काम में व्यस्त रहे मजदूरों के सिर पर उस वक्त असीम विपत्ति (असीम इसलिए क्योंकि विपत्तियों से तो उनका जन्म से ही नाता रहता है ) का पहाड़ टूट पड़ा जब जनता कफ्र्यू के बाद अचानक लाॅकडाॅउन लगा दिया गया। पहले से ही अव्यवस्थित जीवन जीने को मजबूर इस तबके पर कोरोना की मार अधिक जोर से पड़ी है। कुछ पैसा कमाने की आस इन्हे दूसरे राज्यों की ओर पलायन को मजबूर करती है। जिससे उन राज्यों में भी इनका जीवन छोटे से कमरे या झोपड़ पट्टियों में बीतता है। किसी का पूरा परिवार उनके साथ होता है तो कोई अकेला ही काम की तलाष में बाहर आ जाता है। ताकि परिवार के पास पैसे भेजकर कुछ मदद कर सकें। रोज कमाकर जो रोटी खाता है। उसे यह पता चले कि अब कल से वह सभी काम बंद कर दिए जा रहे है तो उनके अंदर चल रहे अंतरद्वंद को कोई नहीं रोक सकता । सोचिए! जो लोग किराए से रह रहे हो , सड़कों पर आश्रय लिए हो जिनके पास कल के खाने तक का इंतजाम नहीं हो ऐसे में एक लंबे समय तक काम बंदी का फैसला सनने के बाद उनके अंदर कितनी उथल - पुथल मची होगी । जाहिर है इन हालातों में वे अपने जन्म स्थान अपने गांव लौट जाने को आतुर होंगे ही लेकिन दूर - दूर तक कोई साधन नजर नहीं आ रहे हो। ऐसे में यदि किसी तरह सरकार उन्हें आष्वस्त कर भी दे तो कितने दिनों तक उन्हें रोका जा सकता है। लाॅकडाॅउन को एक माह से अधिक हो चुका है लेकिन अभी भी प्रवासी मजदूरों का पलायन जारी है। इससे साफ होता है कि सरकार अपनी सेवाओं से उन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रही ंहै। सरकार ही नहीं विभिन्न स्वयं सेवी संस्थाएं भी जरूरतमंदों तक भोजन पहुंचाने के काम मंे जुटी हुई है। बावजूद इसके सभी जरूरतमंदों तक मदद नहीं पहुंच पा रहीं है। जिनके परिवार उनके साथ है उनका तो समय कट जाएगा लेकिन जिनका परिवार साथ नहीं उनकी स्थिति बहुत खराब है। इसलिए वे पैदल या साइकिल से कई - कई किलोमीटर की यात्राएं करने को मजबूर हो गए। पैदल जाते हुए जिन लोगों की जान गई उनके परिवार की जवाबदारी कौन लेगा और यदि सरकार ऐलान कर भी दे तो क्या वाकई उन तक सभी जरूरते समय रहते पहुंच पाएंगी। अभी भी सरकार ने जरूरतमंदों के लिए अतिरिक्त अनाज के वितरण की व्यवस्था की थी लेकिन वह सुविधा राषन कार्ड धारकों तक ही पहुंची । अन्य जरूरतमंद इससे वंचित ही रहे इसीलिए तो उन्होंने हजारों किलोमीटर की दूरी बिना साधन के तय करने में भी परहेज नहीं किया और फिर वे करते भी क्या ? आज जिस तरह सरकारें कोटा में पढ़ाई कर रहे अपने छात्रों को बुलाने का बीड़ा उठा रहीं है । वैसी जहमत किसी ने प्रवासी मजदूरों को उनके गांव तक पहुंचाने के लिए नहीं उठाई। इसलिए उनके मासूम बच्चों को भूख से किलपना पड़ा, गर्भवती महिलाओं को उसी स्थिति में पैदल मिलों चलना पड़ा, किषोरों को भूखे - प्यासे चलना पड़ा। इन विपरीत हालातों ने कईयों की जान ले ली कितना दुखद है। इनकी स्थितियों को देख आंखे भर आती है और मन कहता है हे भगवान गरीबी किसी के भाग्य में मत देना। पहले से ही अभावों में रह रहे गरीबों पर दूसरी विपत्तियां जीवन का संकट बनकर आती है। रोटी की तलाष में यदि यह मजदूर बाहर जाते है तो पुलिस के डंडे खाने पड़ते है। ऐसी ही कई कहानियां हैै इसी तरह रोटी की तलाष में बाहर निकले मजदूर का पुलिस की पिटाई से पैर टूट गया। पुलिस ने उसे लावारिस छोड़ दिया । अन्य लोगों ने उसे अस्पताल पहुंचाया इलाज कराया। पुलिस इस दौर में अपनी ड्यटी ईमानदारी से निभा रहीं है लेकिन इस तरह किसी के हाथ - पैर तोड़ देना उचित नहीं है। पहले उनकी मजबूरी को समझे और उनकी मदद का इंतजाम करें । वहीं जो वाकई बिना वजह बाहर घूम रहे है उन पर कार्रवाही करें। इसके लिए सभी उनका सम्मान कर रहे है, लेकिन किसी गरीब मजदूर को उसकी मजबूरी समझे बिना मारना, अनुचित है। कोरोना का संकट कुछ समय का नहीं बल्कि लंबे समय तक रहने वाला है। जानकारी के मुताबिक इस एक माह के लाॅकडाॅउन से करीब 10 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए है। अभी भी हालात सामान्य होने में काफी वक्त लगेगा उससे साफ जाहिर है कि बेरोजगारों और गरीबों का आंकड़ा और अधिक बढ़ेगा। कोरोना के इस कहर ने असंगठित वर्ग की रीढ़ को तोड़ दिया है। आम गरीब होने के चलते इस वर्ग की आह का षायद किसी को अहसास नहीं है। लेकिन यहीं वर्ग भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी है। इसी वर्ग के बिखरने का प्रभाव कहीं न कहीं अर्थव्यवस्था पर दिखाई अवष्य देगा। इस वर्ग को असहाय छोड़ने के बजाएं योजनाबद्ध रूप से यदि काम किया जाता तो वैष्विक महामारी से जूझते देष में इन्हें अलग - थलग नहीं होना पड़ता।