Friday, August 20, 2010

बेरोजगारी और अस्वस्थता

स्वस्थ समाज की कल्पना में बेरोजगारी सबसे बडा रोढा है । जब भर पेट खाना नसीब नहीं होगा तो व्यक्ति के स्वस्थ रहने की कल्पना करना बेमायने है । देश में बेरोजगारी की दर करीब 10.7 है बेरोजगारी के मामले में भारत 155 वे स्थान पर है । यानि इतने लोग रोजाना रोटी की जुगत में दिन कांटते है कभी पेट में अन्न के दो दाने चले जाते है तो कभी खाली पेट ही नींद को बुलाना पडता है । गरीबों को रोजगार देेने के लिए सरकार ने नरेगा की शुरूआत तो की लेकिन जमीनी स्तर पर पडताल करने पर पता चलता है कि जरूरतमंदों को ही इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है । जब इस योजना के बारे में पिपरिया ब्लाक के समीस्थ ग्रामों में जाकर जायजा लिया तो हाल काफी बेहाल नजर आएं । पिपरिया के समीस्थ ग्राम तरौनकला में अधिकतर लोगों के पास जाॅब कार्ड तो बने है , लेकिन सिर्फ नाम के लिए । इसके तहत वर्ष 2009 में किसी को तीन दिन काम मिला तो किसी को पांच दिन और कई लोगों ने बताया कि जितना काम किया उतना पैसा भी नहीं मिला । हरीपाल कार्ड क्रमांक 0503 के जाॅब कार्ड देखने पर पता चला कि पिछले साल उसमें करीब तीन दिन के लिए काम मिला । हरीपाल कहते है कि मंै तो बांस से टोकनी व सूपा बनाने के अपने पैतिृक कार्य करता हूं, लेकिन आजकल बांस नहीं मिलने के कारण रोटी की तलाश के लिए सरकारी योजना में काम की तलाश में लगा रहता हूं लेकिन इसके सहारे भी रोजी-रोटी नहीं चल पा रही है । उसने बताया कि रोजगार नहीं मिलने और ध्ंाधा नहीं चल पाने के कारण परिवार का पेट पालना बहुत मुश्किल हो गया है ।
प्रिवार में कमाने वाला मंै ही हूं बांस मिल जाते है तो मेरी पत्नी भी काम में मेरा सहयोग कर करती है । अब राशन काॅर्ड ही एक मात्र सहारा है, लेकिन उसमें भी 30 किलों के बजाय सिर्फ 20 किलों अनाज मिलता है पिछले 4-5 महिने से तो चावल मिल ही नहीं रहा । इतने में अच्छे से गुजारा नहीं हो पाता है । यहीं कारण है कि गांव में महिलाओं में एनीमिया की शिकायत रहती है जब माता को ही अच्छा व पर्याप्त भोजन नहीं मिलेगा तो बच्चा तो कुपोषित होगा ही । आंगनबाडी में भी महिलाओं को सिर्फ पोषण दिवस के दिन ही खिचडी या हलवा मिलता है । वहीं मुन्नालाल जिसका पंजीयन क्रमांक 0382 है उसका तो अभी तक खाता भी नहीं खुल पाया है । इस योजना के तहत उसे अभी तक काम नहीं मिला है ।
जहां तक बजट का सवाल है तो पिपरिया ब्लाॅेक का लेबर बजट वर्ष 2009-10 में 5 करोड 35 लाख रूपए था जिसमें से 2 कर्रोड 680 लाख रूपए का उपयोग हुआ । वर्ष 2010-11 के लिए 5 करोड 60 लाख का बजट आया है । पिपरिया की 53 ग्राम पंचायतों में 27,643 जाॅब कार्डधारी हैं, जिनमें से 3 हजार 761 मजदूरों ने अब तक काम किया है । इस योजना के तहत 456 कामों का लक्ष्य था इसके विपरीत कुल 134 काम ही हो पाए है ।ग्राम तरौनकलां में 889 गरीबी रेखा के अंतर्गत आने वाले ऐसे परिवार है जो नरेगा के तहत पंजीबद्व है । जबकि काम करने वालों की संख्या 2230 है जिनमें से सिर्फ 8.07 फीसदी लोगों के ही एकाउंट खुले हैं । ग्राम के सचिव से मिली जानकारी के मुताबिक वर्ष 2008-09 में कुल 100 लोगों ने ही इसके तहत काम किया । गांव में यह योजना क्यों फैल हो रही है इस संबंध में पंचायत के सरपंच व सचिव इसका सीधा जिम्मेदार लोगों को ही ठहरा देते है उनका कहना है कि लोग इस योजना का लाभ ही नहीं उठाना चाहते वहीं दूसरी ओर लोगों का कहना है कि कौन भूखा मरना चाहता है यदि काम मिलेगा तो हम क्यों नहीं करेंगे । जब काम ही नहीं देंगे तो हम कैसे करेंगे ।
स्वास्थ्य का सीधा संबंध भरपेट भोजन से है जब तक भरपेट भोजन नहीं मिलेगा तब तक आदमी स्वस्थ कैसे रह सकता हैं । रोजगार नहीं होने के कारण ही बीमारियों का ग्राफ बढता जा रहा है । मातृत्व मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के लिए भी कहीं न कहीं यह जिम्मेदार है । गर्भावस्था के दौरान मां को अपने और बच्चे दोंनों के लिए आहार लेना होता है, लेकिन उसे अपने लिए ही पेट भर भोजन नहीं मिल पाात तो बच्चा तो दूर की बात है । समय पर वह संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण लोग विभिन्न बीमारियों का शिकार हो जाते है यदि बीमारियों और मृत्यु को रोकना है तो सबसे पहले बेरोजगारी को मिटाने की पहल करना होगा ।

मैं , मेरे पापा और गैलडुब्बा............

बस.............. अब इसके आगे गाडी नहीं जाएंगी तो कैसे जाएंगे। अब आपको करीब 500-600 मीटर नीचे पैदल ही जाना होगा । चलो सिंधौली में किसी कमांडर वाले से बात करते है शायद वह पहुंचा सकें । सिंधौली का कोई भी डाईवर चलने को तैयार नहीं हुआ । आखिरकार उतना रास्ता पैदल ही तय करने का निश्चय हुआ। पहाड का शार्टकट रास्ता बताने के लिए सिंधौली से एक लडका हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गया । यह वाक्या मप्र के छिंदवाडा जिले में तामिया ब्लाक स्थित पतालकोट के ग्राम गैलडुब्बा की यात्रा का है। यह यात्रा ता जिंदगी मेरे जहन में ताजी रहेगी। दरअसल मेरी फैलोशिप के सिलसिले में मै गैलडुब्बा जाना चाहती थी तो पापा ने कहा कि वहां अकेली कैसे जाएंगी। गाडी से चलते है तो तय हुआ कि हम गाडी से जाएंगे। सुबह 10 बजे करीब पिपरिया गृह निवास से गैलडुब्बा के लिए निकले मेरे साथ मेरे पापा और डाईवर भईया थे।
पहाड उतरते वक्त मेरे जहन में कई सवाल घूम रहे थे कि आखिर कैसी जगह होगी कैसे लोग होंगे वे किस तरह रहते होंगे। पैदल रास्ता तय करने में मुझे सिर्फ यहीं चिंता हो रही थी कि पापा मेरे कारण परेशान हो रहे है क्यांेकि इस तरह का उबड-खाबड रास्ता जब मै तय नहीं कर पा रही तो उन्हें कितनी परेशानी हो रही होगी । पापा बार-बार उस लडके से पूछ रहे थे कि इसके बाद कितना रास्ता और बाकी है। रही सही कसर पानी ने पूरी कर दी । उस दिन रह रहकर पानी गिर रहा था, खैर ज्यादा तेज बरसात नहीं हुई। पहाड उतरते वक्त यहीं डर लग रहा था कि यदि पैर फिसला तो सीधे नीचे पहुंचेगे। किसी तरह पहाड का रास्ता पूरा हुआ अब बाकी का रास्ता रोड से ही तय करना था क्योंकि इसके बाद कोई शार्टकट नहीं था। रोड पर आने के बाद मैने कुछ राहत की सांस ली और अब प्रकृति के अविस्मरणीय दृश्यों को देखते ही थकान धीरे-धीरे उतर रही थी। नीचे से पहाड और हरियाली को देखना कितना सुखद था इसका वर्णन शब्दों में करना तो मेरे लिए आसान नहीं होगा, लेकिन वहां के हर एक दृश्य आज भी मेरी आंखों में तैर जाते हैं । प्रकृति के साथ के बीच करीब 2 घंटे चलने के बाद गैलडुब्बा आ ही गया और मैंने देखा कि निर्माणाधीन बिल्डिंग में मजदूर कार्य कर रहे है। पूछने पर पता चला कि छात्रावास की बिल्डिंग बन रही है। दरअसल जब मुख्यमंत्री इस क्षेत्र मे आएं तो कई घोषणाएं करके गए थे यह उनमें से एक है।
आगे बढने पर थोडी उपर की ओर छात्रावास था जब मैंने छात्रावास में कदम रखा तो देखा कि बच्चे पलग के गददे हटाकर उस पर बस्ता रखकर बैठे है। तीन कमरों में स्कूल चल रहा है यह स्कूल आंठवी तक है और एक कक्ष में हर कक्षा के बच्चे मिल जाएंगे । पांच शिक्षकों का स्टाफ है, लेकिन आज दो ही शिक्षिकाएं स्कूल संभाल रही थी। दोनों शिक्षिकाएं तामिया से आती है और दोनों ने बताया कि कई बार यहीं रूक जाते है काम नहीं रहता तो घर चले जाते है। यहां से कर्रापानी तक तो पैदल ही जाना पडता है। कोई साधन नहीं है शुरूआत में तो आने में काफी थक जाते थे अब धीरे-धीरे आदत पड रही है। घरों के बीच दूरी अधिक होने के कारण हर घर में जाना तो संभव नहीं था तो कुछ घरों में जाना हुआ। यहां भारिया आदिवासी रहते है। यहां हर एक घर के बीच करीब आधे से एक किलोमीटर का अंतर है। यहां के आदिवासी उचित मूल्य की दुकानों से मिलने वाले राशन और मक्का ही ज्यादातर खाते है। ये लोग हिन्दी भी समझते है और यहां स्कूल और आंगनबाडी भी है। यहां सब हेल्थ सेंटर भी है, लेकिन वहां किसी तरह की सुविधाएं नहीं है। कुछ समय से टीकाकरण कार्यक्रम तो हो रहा है, लेकिन बरसात में कई दिनों तक नहीं हो पाता । यहां से उपर आने - जाने की सुविधा नहीं होने के कारण एक टस्ट ने आॅटो दान में दिया है, लेकिन आॅटो में डीजल नहीं होने के कारण भी कई बार पैदल ही जाना पडता है। कर्रापानी तक जाना यहां के रहवासियों की आदत में शुमार हो चुका है। आने-जाने की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भावस्था के दौरान काॅफी समस्याएं आती है। सबसे बडी बात तो यह कि कई बार महिलाएं पहाड चढकर अस्पताल जाती है। ऐसे में यदि कोई अनहोनी हो जाएं तो कौन उसकी जिम्मेदारी लेगा। वहीं कुछ पुरूषों ने बताया कि कई बार उठा कर भी ले जाना पडता है। ग्रामवासियों ने बताया कि तबीयत खराब में भी ऐसे ही जाना पडता हैै। जब साधन ही नहीं मिलते तो क्या करें ।
क्षेत्र में अटूट प्राकृतिक सौंदर्यता है, जिस ओर देखों आंखों में चमक आ जाती है और हरियाली देखकर मन खिल उठता है। वहां से वापस लौटते समय मेरी चढने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी, लेकिन चढना तो था। हमारे साथ आएं लडके ने पूछा कि पहाड चढना आपके लिए कठिन होगा तो मैंने भी कहा कि ठीक है कच्चे रास्ते से ही चलते है। चढने में पापा और मैं पूरे पसीने में नहा लिए थे और वह लडका आराम से चढ रहा था । जब आखिरी चढाव बचा था तब पापा ने उससे कहा कि तुम चले जाओ हम लोग धीरे-धीरे आते हैं। वह तो फटा-फट चढ गया और दो -तीन मिनिट बाद ही वह दिखना बंद हो गया। तभी वहीं से बांसुरी की सुरिली धुन सुनाई पडी नीचे की ओर देखा तो एक ग्वाला जो गायों को घास चराने लाया था वह बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी की तान प्रकृति की सुंदरता मंे चार चांद लगा रही थी। ऐसा माहौल मैंने पहली बार देखा था। अब धीरे-धीरे गाडी दिखाई देने लगी थी और मेरे पैरों ने भी जवाब दे दिया था। उपर पहुंचकर जब नीचे की ओर देखा तो अपार सौंदर्य ऐसा लग रहा था मानो यही स्वर्ग है। तभी आसमान की ओर देखा तो नीला और सफेद रंग का मिलाव अत्यंत सुंदर लग रहा था। तामिया और उसके आसपास के गांवों की प्राकृतिक सौंदर्यता का तो कोई सानी नहीं है। हर एक पल प्रकृति के बहुरंगे और सुंदर दृश्य देखने को मिलते जो आंखों में ऐसे बस जाते है कि भुलाए नहीं भुलते और फिर गैलडुब्बा की यात्रा तो मेरे जहन में हमेशा ताजी रहेगी।

Wednesday, August 4, 2010

कुपोषण के साथ जीने की मजबूरी


यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। मध्यप्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है।
दीपक की मां बडे भोलेपन के साथ कहती है कि हर आठ-पंद्रह दिन मंे जाहेे कछु ना कछु होत रहत है। कछु पीरो सो भी रहत है और बहुत कमजोर है। नन्ही बाई अपने बेटे दीपक के बारे में कहती है कि इलाज चल रओ है मगर कछु अंतर समझ नहीं पड रओ। नन्ही बाई और उनके पति दोनों मजदूरी करते है और 30-40 रूपए की आमदनी है। दीपक डेढ साल का है और उसका कद 28 इंच है और वजन 6 किलो है। नन्हीबाई ने बताया कि गरीबी रेखा का कार्ड भी नहीं बना है तो कंटोल से राशन भी नहीं मिलता मजदूरी के भरोसे ही चल रहे है। कभी चटनी तो कभी रूखी रोटी खाते है। वे कहती है कि महीने चढे होने के बाद भी मजदूरी पर जाते है नहीं जाएंगे तो खांएगे क्या। हरीजन बस्ती की महिलाएं बताती है कि कई बार तो ऐसा हुआ कि मजूरी से आए और अस्पताल भी नहीं जा पांए और बच्चा हो गया। दीपक को 14 दिन तक पिपरिया के पोषण पुर्नवास केंद्र में रखा गया था और चार बार फालोअप के लिए भी गई थी। लेकिन अभी भी दीपक की हालत सुधरी नहीं है। नन्ही बाई से पूछा कि दीपक को खाने में क्या - क्या देती हो तो बोली जो हम खाते है वही देते है। कभी रोटी दाल तो कभी चावल । जब पूछा कि डाक्टर ने क्या बताया था तो कहती है उनने तो बताया था मगर जो होगा वहीं तो खांएगे। पोषण पुर्नवास क्यों नही ले जाती तो नन्ही बाई कहती है कि डाक्टर ने कहा कि अब ठीक हो जाऐगा। दरअसल नन्ही बाई का बेटा दीपक कुपोषित है। लेकिन वह नहीं जानती कि उसका बेटा कुपोषण का शिकार है। होशंगाबाद जिले के पिपरिया से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम पचुआ में महिलाओं के हालात ऐसे ही है। वहां की महिलाएं बस यह जानती है कि उनका बच्चा कमजोर है मगर बीमारी के कारण से वह पूरी तरह अंजान है। हालात यह है कि गांव की आंगनबाडी भी पिछले एक महीने से नहीं लग रही है। जिले के ऐसे ग्राम जहां पहुंच मार्ग नहीं है वहां स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह लचर है और जिम्मेदार अधिकारियों को वहां के हालातों को जानने में कोई रूचि नहीं है।
कुपोषण की स्थिति जानने के लिए जिले के कुछ ग्रामों का दौरा किया तो सभी जगह स्थिति बहुत गंभीर नजर आई। खासतौर पर पहुंच वहीन गांवों के हालात तो बहुत बदतर है। यहां गरीबों को देखने वाला कोई नहीं है जबकि एनएफएचएस 3 के मुताबिक प्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है। हरिजन बस्ती और मजदूर वर्ग के बच्चे अधिक कमजोर पाएं गए क्योंकि इन महिलाओं को गर्भवति होने के दौरान और सामान्य दिनों में भी पोषण आहार नहीं मिलता है यहीं वजह है कि बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। जबकि यूनिसेफ की गाइडलाइन के मुताबिक कुपोषित बच्चों को भरपूर पोषण आहार मिलना चाहिए, उन्हे हाई फाइबर युक्त भोजन , फल और हरी सब्जियां अधिक से अधिक खिलाना चाहिए । पचुआ में टीकाकरण कराने पहुंची भागवती बाई की तीन लडकिया है और यह चैथा है। भागवती 27 बरस की है और उनका वजन 35 किलो है और कद 4.8 इंच है। जब उनसे भोजन के बारे में पूछा तो कहा मजदूरी करके जितना कमा लेते है उसी हिसाब से भोजन हो पाता है। कभी 30 तो कभी 50 रूपए मिलते है उसी आधार पर घर चलाते है। वे बताती है कि गर्भावस्था के दौरान भी भोजन में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया है। जबकि जनस्वास्थ्य सहयोग संस्था द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार मेहनत करने वाली गर्भवति महिला को 575 ग्राम अनाज, 50 ग्राम दाल, 50 ग्राम तेल और 100 ग्राम भाजी खाना चाहिए। नेशनल रिसर्च काउंसिल सब कमेटी आॅफ यूएसए के मुताबिक गर्भवति महिला को 2400 किलो कैलोरी एनर्जी, 1000 ग्राम विटामिन ए, 1200 मिली ग्राम कैल्श्यिम आदि मिलना जरूरी है लेकिन जिनके पास रोजगार का स्थाई साधन नहीं है उन्हें जब जैसा काम मिलता है कर लेते है। ऐसे में पोषण आहार और गर्भावस्था के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां वह कैसे रखेंगी और जब तक मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं होगी तब तक बच्चे के स्वस्थ होने की कल्पना करना बेकार है।


आंगनबाडी के रिकार्ड भी इस बात को पुख्ता करते है कि बच्चों का विकास उम्र के मुताबिक नहंी हो रहा है। जब पिपरिया विकासखंड से सटे ग्राम डापका की आंगनबाडी का औचक निरीक्षण किया गया तो वहां दर्ज बच्चों का वजन उम्र के लिहाज से काफी कम है। रिकार्ड के मुताबिक 5 वर्ष की रूबी का वजन 12.40, 5 वर्ष के पंकज का वजन 13 किलो है जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक इस उम्र में बच्चों का वजन 20.2 के करीब होना चाहिए। जब आंगनबाडी में आने वाले बच्चों का वजन ही उम्र से इतना कम है तो जो बच्चे आंगनबाडी तक नहीं पहंुच पाते उनका क्या हाल होगा। आंगनबाडियों में बच्चों का समय-समय पर वजन नहीं किया जाता है। कार्यकर्ता को ठीक से प्रशिक्षण नहीं मिलने के कारण उसे यह ज्ञान भी नहीं है कि सामान्य बच्चे का वजन कितना होना चाहिए। आंगनबाडियों के रजिस्टरों में भी सभी आंकडे व्यवस्थित नहीं होते है। किसी में वजन दर्ज है तो उम्र ठीक से नहीं लिखी है और कद का उल्लेख तो किसी आंगनबाडी के रजिस्टर में देखने को नहीं मिला। जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक बच्चों के कद और वजन के आधार पर उनके स्वस्थ होने का आंकलन करना चाहिए। लेकिन आंगनबाडी कार्यकर्ता को ही इसकी जानकारी नहीं है। गांव में जब महिलाओं से पूछा कि आपके बच्चे का वजन कब तुला था तो उन्हें यह भी नहीं पता। कईयों ने बताया कि दो महीने पहले तोला था तो किसी ने बताया कि क्या पता कब किया था।



होशंगाबाद जिले का पिपरिया विकासखंड जिसमें करीब 150 गांव शामिल है, यहां के सामुदायिक अस्पताल की पोषक प्रशिक्षक चंद्रावति दुबे ने बताया कि आंगनबाडियों में कुपोषित बच्चों को सामान्य बच्चों से अधिक विटामिन और पोषण आहार की जरूरत होती है, लेकिन उन्हें नहीं दिया जाता है । पोषण पुर्नवास कंेद्र में रिंकी खटीक अपनी कुपोषित बच्ची सीआ का तीसरा फालोअप कराने आई जांच के बाद सीआ जिसकी उम्र एक वर्ष है और उसका वजन 5.670 था जबकि नियमानुसार उसका वजन करीब 7.3 होना चाहिए। उसका एमयूएसी मिड अंडर आर्म सरकमफेंस 10.5 था। यूनीसेफ की गाइड लाइन कहती है कि 1-5 वर्ष तक के बच्चों का मध्य बाह का घेरा 11.5 से उपर होना चाहिए। इलाज होने के बाद बच्ची कमजोर मालूम पड रही थी तो जो यहां तक नहीं पहुंच पाते उनकी क्या हालत होती होगी। यूनीसेफ द्वारा कद और वजन के मुताबिक कुछ स्टेंडर्ड डेविएशन तय किए गए है उसके तहत 45 सेमी की उंचाई वाले बच्चे का वजन 2.50 ग्राम होना चाहिए यदि 1.90 ग्राम है तो उसे -3एसडी माना जाएगा।
यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। चाहे डापका, तरौन या रिछैडा लगभग सभी गांवों में कुपोषित बच्चे है। आंकडों के मुताबिक भी अनुसूचित जाति जनजाति इलाकों के बच्चे अधिक कुपोषित है। सीएचसी के मिले आंकडों के अनुसार वर्ष 2009 में एसटी के 87 कुपोषित बच्चे भर्ती हुए। इसका सबसे बडा कारण पोषण आहार नहीं मिलना है। वहीं बच्चों को भी देते है। पोषण प्रशिक्षक का कहना है कि संपूर्ण पोषण आहार में दाल, चावल, सब्जी, रोटी और सलाद होता है, लेकिन इन बस्तीयों के लोगों को रोटी ही बडी मुश्किल से नसीब हो रही है। जिनके पास राशन कार्ड है उन्हें 30 किलो के बजाए 20 किलो गेंहू और 5 किलो के बजाए डेढ दो किलो शक्कर मिलती है और जिनके पास कार्ड नहीं है उन्हें तो खाने के लिए और मशक्कत करना पडता है। पिपरिया के सामुदायिक अस्पताल के आंकडो के मुताबिक पिपरिया विकासखंड में 4184 कम वजन और 967 अति कम वजन वाले बच्चे है। होशंगाबाद जिले में करीब 3022 बच्चे कुपोषित है। वहीं एनएफएचएस 3 के अनुसार कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश 60.3 के साथ देश में पहले स्थान पर है।
हमारे देश में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम आईसीडीएस चलता है जिसका मुख्य उददेश्य गर्भवती व धात्री महिलाओं और छोटे बच्चों में पोषण की हालत को सुधारना है। गांवों व शहरों में यह कार्यक्रम आंगनबाडी केंद्रों द्वारा संचालित होता है। आईसीडीएस कार्यक्रम 1975 से कार्यरत है लेकिन 40 साल बाद भी देश के हालात में कोई खास अंतर नहीं आया है। आंगनबाडी कार्यकर्ता का प्रमुख जिम्मेदारी स्वास्थ्य व पोषण शिक्षा, महिलाओं को स्तनपान के लिए प्ररित करना और 6 माह की उम्र के बाद के बच्चे को अद्र्व ठोस आहार देेन पोषण संबंधी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है। जिस मुख्य उददेश्य के साथ एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम की शुरूआत हुई ताकि कुपोषण पर रोक लगाई जा सके, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। कुपोषण के मामले आए दिन सामने आ रहे हैै। माता-पिता के पास रोजगार का साधन नहीं होने के कारण पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिल पाना, स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाना, कम उम्र में गर्भवति होना, गर्भवस्था के दौरान मां की उचित देखभाल नहीं होना ही गांवों के बच्चों में होने वाले कुपोषण का सबसे बडा कारण है।