बहुत पुराना डाक्टर है और रात - बेरात कहां जाएं दिखाने यहां नहीं तो और कहां दिखाएंगे। इतना पैसा खर्च करने के बाद भी नहीं बच पाई......... दो- तीन दिन से सिर में दर्द था तो यहीं के डाक्टर को दिखाया। बाटल इंजेक्शन लगाने के बाद भी ठीक नहीं हुई। अगले दिन डाक्टर ने कह दिया बाहर ले जाओ । पिपरिया के एक प्राइवेट अस्पताल के दरवाजे पर ही दम तोड़ दिया ।
पति तो पहले ही चल बसा था अब ये भी चली गई इस बच्चे के सिर से तो दोनों का साया उठ गया। यह कहानी हैं बसंती बाई की, जो होशंगाबाद जिले के पिपरिया तहसील से सटे ग्राम खैरीकलां की रहवासी थी । गांव वालों ने बताया कि जब की कोई अचानक कोई बीमार होता है तो यहीं के डाक्टर को दिखाते हैं।
इन्हीं की पडोसी रामरति को भी ठीक ऐसी ही परेशानी हुई। रामरति के परिवार वालों ने बताया कि एक-दो दिन से सिर में दर्द था एक दिन यहां दिखाने के बाद आराम नहीं मिला तो पिपरिया के सरकारी अस्पताल ले गए, जहां डाक्टर ने बताया कि तीन डंडी वाला बुखार है फिर बाटल और दवांईया दी । अस्पताल में एक दिन रूकने के बाद घर आ गए मगर उसे अभी भी आराम नहीं है। बहुत कमजोर हो गई है और चक्कर आते रहते है।
दोनों गौड आदिवासी महिलाएं थी जिन्हें असल में मलेरिया हो गया था, लेकिन समय पर ठीक इलाज नहीं हो पाने के कारण एक की मौत हो गई और दूसरी की तबीयत काफी बिगड गई। सरकार झोला छाप डाक्टरों को खत्म करने की बात करती है, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि परेशानी में यही डाक्टर उन लोगों के काम आते हैं। यह भी सही है कि इलाज के नाम पर वह बीमार व्यक्ति पर दवांईयां आजमाते है क्योंकि सही बीमारी का पता तो उन्हें नहीं रहता और इसी में कई बार व्यक्ति अपनी जान गंवा देते हैं या दूसरी बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।
ऐसे कई उदाहरण हमारे आसपास होंगे जिनमें इन डाक्टरों की वजह से परेशानी खड़ी हुई है। ग्राम खैरीकलां से लगे तरौन ग्राम में भी कुछ ऐसा ही हादसा हुआ प्रत्यक्षदर्शी ने बताया कि एक दिन काम करते हुए एक मजदूर का हाथ मशीन में आ गया और तुरंत गांव के डाक्टर को दिखाया तो उसने पता नहीं कौन सी दवांई दी जिससे उसके पूरे शरीर में खुजली मचने लगी और लाल दाने उभर आएं मुंह के अंदर तक लाल दाने हो गए थे। फिर उसे पिपरिया सीएचसी में दिखाया उसके काफी दिनों बाद उसे आराम लगा। कुछ कहते हैं कि डाक्टर तो काफी पुराने है, अब हमारी तो मजबूरी है एनटाइम पर इन्हें ही दिखाना पडता है।
ऐसे हालात में झोला छाप को खत्म करने के लिए गांव में डाक्टरों की नियुक्ति करना होगा, जो उनके बस की बात नहीं है। एक एएनएम तो रहने को तैयार कर नहीं पा रहे हैं फिर डाक्टर की नियुक्ति करना बहुत टेढी खीर है। एक मजदूर के घर जब कोई बीमार पडता है तो उसका असर पूरे परिवार पर पडता है क्योंकि इलाज के लिए पैसा चाहिए और वहीं तो नहीं होता उनके पास । सभी मजदूरों के हालात एक जैसे हैं यदि किसी का इलाज कराना है तो दूसरे से पैसा उधार लेकर ही करवाना होता है।
रामरति के ससुर कहते हैं कि हम तो ठहरे मजदूर आदमी रोज करते है और परिवार को खिलाते हैं। ऐसी स्थिति होने पर पैसा उधार ही लेना पडता है क्योंकि इतना पैसा हमारे पास नहीं होता । बहु बीमार हुई तो करीब 5 हजार का खर्चा हो गया अब धीरे-धीरे चुकाएंगे। इतना पैसा खर्च करने के बाद यदि व्यक्ति बच जाएं तो ठीक नहीं तो ................ । अब जो महिला खत्म हो गई उनका भी करीब इतना ही खर्चा हुआ होगा, खर्चा भी हुआ और वह भी नहीं बची । ‘‘लकडी/फाटा का काम करते हैं काम नहीं रहता तो जे बैठे हैं।‘‘
इस घटना के बाद जनपद अध्यक्ष का जवाब था कि झोलाछाप डाक्टरों पर रोक लगाना होगा, लेकिन क्या इनके अलावा गांवों में और कोई साधन हैं । हां एक ओर साधन हैं जिन्हें ओझा कहते है? जहां तक सुप्रशिक्षित डाक्टरों का सवाल है तो गांव में कोई भी आना पसंद नहीं करते। सबसेंटर भी महीने में एक बार खुलते हैं, जब टीकाकरण होना होता है। उस दिन भी सिर्फ एएनएम ही आती है।
जहां तक आंगनबाडी या आशा कार्यकर्ता की बात है तो दोनों के पास भी पर्याप्त दवांईयां नहीं होती। ऐसे में गांव वालों के पास विपरीत परिस्थितियों में सिर्फ एक ही सहारा रहता है। जिन्हें बंगाली या झोलाछाप डाक्टरों के नाम से जाना जाता है।
पिपरिया से सटी तहसील सोहागपुर के गांवों में बरसात के दौरान मलेरिया फैल रहा था तो कुछ गांवों में स्वास्थ्य टीम भेजी गई उन्होंने औपचारिकता के तौर पर लोगों का इलाज खून की जांच किए बिना ही कर दिया और कुछ गांवों में तो टीम ही नहीं गई। वहां के दलित संगठन से जुड़े डा. आवटे ने बताया कि मरीजों ने जब यह बताया तो उनके खून की जांच करवाई गई तो लगभग सभी में मलेरिया पाॅजीटिव पाया गया ।
आज के वैज्ञानिक युग में भी उल्टी, दस्त और बुखार से मौत होना शायद सरकार के लिए मायने नहीं रखता होगा, लेकिन यह कोई छोटी घटनाएं नहीं है। गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की निगरानी के लिए जो समिति बनाई है वे भी इन मुददों पर बात करना जरूरी नहीं समझते। जब इन विषयों पर गांव के सरपंच, पंच, आंगनबाडी और आशा कार्यकर्ता से बात करते हैं तो सभी के अपने-अपने तर्क होते हैं। कोई कहता है कि पीडित पक्ष की गलती है उन्होंने समय रहते नहीं दिखाया तो कोई कहता है कि झाडा फंूकी में लगे रहे इसी का परिणाम है। किसी के उत्तर संतोषजनक नहीं हैं क्योंकि वे भी डाक्टर तो नहीं है ऐसे समय में व्यक्ति की मदद डाक्टर ही कर सकता है। जब वहीं समय पर उपलब्ध नहीं है तो कोई कुछ नहीं कर सकता, लेकिन ऐसी घटनाओं के बाद भी किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाईश नजर नहीं आती।
हाल ही में सरकार ने डाक्टरों को अधिक वेतन देकर गांवों में काम करने का प्रलोभन भी दिया, लेकिन यह कदम कितना कारगर होगा देखते है ? इससे तो बेहतर है कि सरकार उन बंगाली डाक्टरों को विशेष प्रशिक्षण देकर प्राथमिक इलाज करने के योग्य बना दे । जब एक आंठवी पास आशा या आंगनबाड़ी कार्यकर्ता को सरकार ने इतना अधिकार दिया है कि वे दंवाईयां दे सकें । तो कुछ ऐसे डाक्टर हैं जिनके पास लाईसेंस है तो कम से कम उन्हें विधिवत ट्रेनिंग दी जा सकती हैं।
Monday, November 1, 2010
Wednesday, September 29, 2010
रोटी की जुगत
श्रद्धा मंडलोई
बीमारों का इलाज और दो जून रोटी की जुगत में कट रही जिंदगी
दुनिया मंे हम आए हैं तो जीना ही पडेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पडेगा...... मदर इंडिया का यह गीत सुनते ही संघर्षरत नरगिस का चेहरा हमारे सामने उभर आता है। फिल्म में नरगिस का किरदार हर मुश्किलों से लडते हुए अपने परिवार का पेट पालती है। इस फिल्म ने कई रिकार्ड तोडे और नरगिस की अलग छवि उभर कर सामने आई, लेकिन हमारे आसपास भी ऐसी कई मदर इंडिया है जिन्हें हम नहीं देख पा रहे है । आइए आपकी पहचान कुछ ऐसी ही मदर इंडिया से करवाते है जो घर के साथ बाहर की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रही है।
सुशीला बाई लकडियों का गटठा बांधने में व्यस्त कल की रोजी रोटी की तैयारी कर रही है। मंगलदास बाहर आंगन में रखे बिस्तर पर लेटे हुए है। जैसे ही मैंने घर में प्रवेश किया तो मंगलदास उठने की कोशिश करने लगे और सुशीला बाई ने रस्सी बांधते हुए मुडकर देखा और बोली काय कौन है। फिर मेरी तरफ मुडते हुए बोली का बात है। धीरे - धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। सुशीला बाई बताती है कि परिवार में कमाने वाली और बनाने वाली मैं ही हूं। छोटा बेटा और बहू दोनों टीबी के मरीज है और पति असहाय हो गए है। पैसों के अभाव में पति का इलाज भी नहीं हो पा रहा है । बेटे के इलाज के लिए थोडे बहुत रकम थी वह गिरवी रख दी। बीमारियों ने मुझे बहुत तोड दिया है। मजूरी करके या जंगल से लकडी बीनकर बेचती हूं जितना मिल जाएं उसी में कर खा रहे है। का करे जिंदगी तो कांटना पडेगा। सुशीला बाई खुद 60 बरस की है लेकिन परिवार की खातिर इस उम्र में भी दोनों जिम्मेदारिया बखूबी निभा रही है। वे बताती है कि लकडियों के गटठे के कभी किसी ने गरीब समझकर 50 रूपए दे दिए तो खूब हो जाता है नही तो 20-30 रूपए मंे ही घर चलाना पडता है। रोज खाने को मिले ऐसा जरूरी नहीं हैं। झोपडी नुमा घर तीन टुकडों में बंटा हुआ है एक तरफ बडा और दूसरी तरफ छोटा बेटा रहता है, लेकिन छोटे बेटे और पत्नी को जब से टीबी हुई है मां ही बनाकर खिला रही है। राशन कार्ड पर जितना राशन मिल रहा है बस उसी पर निर्भर है। राशन में भी सिर्फ 20 किलो गेंहू और 2 किलो शक्कर मिल रही है। पांच लोगों में वह कब तक पूरा पडेगा। झोपडी की मरम्मत के लिए इंदिरा आवास के तहत पंचायत से सात हजार रूपए का चैक मिला है, लेकिन चैक टूट ही नहीं रहा है उसे लेकर इधर - उधर घूम रहे हैं। सुशीला बाई से जब कहा कि आपने गांव की समीति से इस बारे में कोई बात की तो उन्होंने कहा कि कौन सी समीति। यानि ग्रामीणों को यह नहीं पता कि यदि उनके स्वास्थ्य सेे जुडी कोई समस्या है तो उसे ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति के साथ बांट सकते हैं। सुशीला बाई ने कहा कि इलाज में मेरे जितने गहने थे वे भी बिक गए और अब हाथ में कुछ नहीं है। ऐसे हालात में समीति उनकी सहायता कर उन्हें दीनदयाल अंतोदय योजना या अन्य योजना का लाभ दिला सकती थी। लेकिन समीति की भूमिका यहां भी लचर ही रही।
यह तो शुरूआत है पिपरिया से करीब 10 किलोमीटर दूर ग्राम रिछैडा में ऐसी कई महिलाएं है जो परिवार का पालन कर रही है। गांव की आशा हेमलता दुबे 36 वर्ष के पति कैलाश दुबे विकलांग है। हेमलता ने बताया कि शादी के दस साल बाद गले की नस चिपट जाने से विकलांग हो गए थे। तब से घर की जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई। हेमलता के तीन बच्चे है पति की हालत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। लंबे समय तक इलाज कराने के बाद भी कोई अंतर नहीं पडा। नागपुर के सीम्स अस्पताल में भी दिखाया लेकिन कुछ अंतर नहीं आया । हेमलता ने बताया कि डाक्टर का कहना है कि आपरेशन में रिस्क है और जरूरी नहीं की इनकी जान बच पाए । डाक्टर के ऐसा कहने के बाद घर वालों की राय ली तो सभी ने कहा कि वे अभी दिख तो रहे है तुम तो घर आ जाओ तो घर ले आए । अब पैसा भी इतना नहीं है कि रोज दवा करा सके । टीकाकरण और जितने केस मिल जाएं उसी पर परिवार चल रहा है। पति बिल्कुल असहाय हो गए है वे बिस्तर पर ही रहते है। नहलाने से लेकर शौच सहित सभी काम बिस्तर पर ही होते है। दिन ब दिन उनकी हालत गिरती जा रही है।
पैतीस वर्षीय मुन्नीबाई के पति का एक साल पहले निधन हो गया उनके पांच बच्चे है। मुन्नीबाई मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पाल रही है। बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलने के कारण बच्चे कमजोर भी है। पचास वर्षीय गौरा नागवंशी अपनी मां और भतीजी के साथ रहती है और रोज मजदूरी करके घर चला रही है। गौरा बाई बताती है कि यदि यहां की बाईयां काम न करें तो आदमी भूखे मर जाएंगे । गौरा की मां बीमार है वे गिर गई थी तब से चलने में बहुत परेशानी है। उनसे कुछ करते नहीं बनता। पैसा नहीं होने के कारण उनका इलाज भी नहीं हो पा रहा है। सरकारी अस्पताल में दिखाया था मगर आराम नहीं लगा । पचपन वर्षीय घसीटी बाई भी अपने दम पर अपने परिवार का भरण पोषण कर रही है।
गावं में अधेड उम्र की महिलाएं हर समस्या का डट कर सामना कर रही है। जितनी भी महिलाएं अपने दम पर घर चला रही है उनके परिवार में कोई न कोई बडी बीमारी से ग्रस्त है। मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाली महिलाओं को बाहर से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पा रही है। इस उम्र मंे भी जैसे बन रहा है वैसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है। ये कामकाजी महिलाएं बताती है कि कभी -कभी तो जिंदगी बहुत बोझ लगने लगती है लेकिन फिर घर वालों का मुंह देखकर जीना पडता है। ऐसा लगता कि कि आखिर क्या करें कि रोज रोटी और घरवालों का इलाज दोनों काम अच्छे से चलते रहे, लेकिन पढे - लिखे नहीं होने के कारण कोई दूसरा काम भी नहीं मिलता है। फिर जैसा काम मिलता है करना पडता है। सुुशीला बाई कहती है कि बस रोज यही सोच कर घर से निकलती हूं कि इतना मिल जाएं कि घर वालों को भूखा न सोना पडे। कभी - कभी तो ऐसा होता है कि कंटोल की दुकान से राशन लेने के लिए भी पैसा नहीं होता है।
बीमारों का इलाज और दो जून रोटी की जुगत में कट रही जिंदगी
दुनिया मंे हम आए हैं तो जीना ही पडेगा, जीवन है अगर जहर तो पीना ही पडेगा...... मदर इंडिया का यह गीत सुनते ही संघर्षरत नरगिस का चेहरा हमारे सामने उभर आता है। फिल्म में नरगिस का किरदार हर मुश्किलों से लडते हुए अपने परिवार का पेट पालती है। इस फिल्म ने कई रिकार्ड तोडे और नरगिस की अलग छवि उभर कर सामने आई, लेकिन हमारे आसपास भी ऐसी कई मदर इंडिया है जिन्हें हम नहीं देख पा रहे है । आइए आपकी पहचान कुछ ऐसी ही मदर इंडिया से करवाते है जो घर के साथ बाहर की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रही है।
सुशीला बाई लकडियों का गटठा बांधने में व्यस्त कल की रोजी रोटी की तैयारी कर रही है। मंगलदास बाहर आंगन में रखे बिस्तर पर लेटे हुए है। जैसे ही मैंने घर में प्रवेश किया तो मंगलदास उठने की कोशिश करने लगे और सुशीला बाई ने रस्सी बांधते हुए मुडकर देखा और बोली काय कौन है। फिर मेरी तरफ मुडते हुए बोली का बात है। धीरे - धीरे बातों का सिलसिला शुरू हुआ। सुशीला बाई बताती है कि परिवार में कमाने वाली और बनाने वाली मैं ही हूं। छोटा बेटा और बहू दोनों टीबी के मरीज है और पति असहाय हो गए है। पैसों के अभाव में पति का इलाज भी नहीं हो पा रहा है । बेटे के इलाज के लिए थोडे बहुत रकम थी वह गिरवी रख दी। बीमारियों ने मुझे बहुत तोड दिया है। मजूरी करके या जंगल से लकडी बीनकर बेचती हूं जितना मिल जाएं उसी में कर खा रहे है। का करे जिंदगी तो कांटना पडेगा। सुशीला बाई खुद 60 बरस की है लेकिन परिवार की खातिर इस उम्र में भी दोनों जिम्मेदारिया बखूबी निभा रही है। वे बताती है कि लकडियों के गटठे के कभी किसी ने गरीब समझकर 50 रूपए दे दिए तो खूब हो जाता है नही तो 20-30 रूपए मंे ही घर चलाना पडता है। रोज खाने को मिले ऐसा जरूरी नहीं हैं। झोपडी नुमा घर तीन टुकडों में बंटा हुआ है एक तरफ बडा और दूसरी तरफ छोटा बेटा रहता है, लेकिन छोटे बेटे और पत्नी को जब से टीबी हुई है मां ही बनाकर खिला रही है। राशन कार्ड पर जितना राशन मिल रहा है बस उसी पर निर्भर है। राशन में भी सिर्फ 20 किलो गेंहू और 2 किलो शक्कर मिल रही है। पांच लोगों में वह कब तक पूरा पडेगा। झोपडी की मरम्मत के लिए इंदिरा आवास के तहत पंचायत से सात हजार रूपए का चैक मिला है, लेकिन चैक टूट ही नहीं रहा है उसे लेकर इधर - उधर घूम रहे हैं। सुशीला बाई से जब कहा कि आपने गांव की समीति से इस बारे में कोई बात की तो उन्होंने कहा कि कौन सी समीति। यानि ग्रामीणों को यह नहीं पता कि यदि उनके स्वास्थ्य सेे जुडी कोई समस्या है तो उसे ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति के साथ बांट सकते हैं। सुशीला बाई ने कहा कि इलाज में मेरे जितने गहने थे वे भी बिक गए और अब हाथ में कुछ नहीं है। ऐसे हालात में समीति उनकी सहायता कर उन्हें दीनदयाल अंतोदय योजना या अन्य योजना का लाभ दिला सकती थी। लेकिन समीति की भूमिका यहां भी लचर ही रही।
यह तो शुरूआत है पिपरिया से करीब 10 किलोमीटर दूर ग्राम रिछैडा में ऐसी कई महिलाएं है जो परिवार का पालन कर रही है। गांव की आशा हेमलता दुबे 36 वर्ष के पति कैलाश दुबे विकलांग है। हेमलता ने बताया कि शादी के दस साल बाद गले की नस चिपट जाने से विकलांग हो गए थे। तब से घर की जिम्मेदारी मेरे उपर आ गई। हेमलता के तीन बच्चे है पति की हालत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। लंबे समय तक इलाज कराने के बाद भी कोई अंतर नहीं पडा। नागपुर के सीम्स अस्पताल में भी दिखाया लेकिन कुछ अंतर नहीं आया । हेमलता ने बताया कि डाक्टर का कहना है कि आपरेशन में रिस्क है और जरूरी नहीं की इनकी जान बच पाए । डाक्टर के ऐसा कहने के बाद घर वालों की राय ली तो सभी ने कहा कि वे अभी दिख तो रहे है तुम तो घर आ जाओ तो घर ले आए । अब पैसा भी इतना नहीं है कि रोज दवा करा सके । टीकाकरण और जितने केस मिल जाएं उसी पर परिवार चल रहा है। पति बिल्कुल असहाय हो गए है वे बिस्तर पर ही रहते है। नहलाने से लेकर शौच सहित सभी काम बिस्तर पर ही होते है। दिन ब दिन उनकी हालत गिरती जा रही है।
पैतीस वर्षीय मुन्नीबाई के पति का एक साल पहले निधन हो गया उनके पांच बच्चे है। मुन्नीबाई मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पाल रही है। बच्चों को पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिलने के कारण बच्चे कमजोर भी है। पचास वर्षीय गौरा नागवंशी अपनी मां और भतीजी के साथ रहती है और रोज मजदूरी करके घर चला रही है। गौरा बाई बताती है कि यदि यहां की बाईयां काम न करें तो आदमी भूखे मर जाएंगे । गौरा की मां बीमार है वे गिर गई थी तब से चलने में बहुत परेशानी है। उनसे कुछ करते नहीं बनता। पैसा नहीं होने के कारण उनका इलाज भी नहीं हो पा रहा है। सरकारी अस्पताल में दिखाया था मगर आराम नहीं लगा । पचपन वर्षीय घसीटी बाई भी अपने दम पर अपने परिवार का भरण पोषण कर रही है।
गावं में अधेड उम्र की महिलाएं हर समस्या का डट कर सामना कर रही है। जितनी भी महिलाएं अपने दम पर घर चला रही है उनके परिवार में कोई न कोई बडी बीमारी से ग्रस्त है। मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करने वाली महिलाओं को बाहर से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल पा रही है। इस उम्र मंे भी जैसे बन रहा है वैसे अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही है। ये कामकाजी महिलाएं बताती है कि कभी -कभी तो जिंदगी बहुत बोझ लगने लगती है लेकिन फिर घर वालों का मुंह देखकर जीना पडता है। ऐसा लगता कि कि आखिर क्या करें कि रोज रोटी और घरवालों का इलाज दोनों काम अच्छे से चलते रहे, लेकिन पढे - लिखे नहीं होने के कारण कोई दूसरा काम भी नहीं मिलता है। फिर जैसा काम मिलता है करना पडता है। सुुशीला बाई कहती है कि बस रोज यही सोच कर घर से निकलती हूं कि इतना मिल जाएं कि घर वालों को भूखा न सोना पडे। कभी - कभी तो ऐसा होता है कि कंटोल की दुकान से राशन लेने के लिए भी पैसा नहीं होता है।
Monday, September 6, 2010
कम उम्र में बडे बोझ के भार से दब जाती हैं बेटियां
चार साल की उम्र में उसके सिर पर घडा रखने की जिम्मेदारी आ जाती है। छह साल की होते ही अपने छोटे भाई - बहनों और चूल्हा-चोका संभालने की जिम्मेदारी और इसके दो साल बाद उसकी पढाई छूट जाती है । वह बच्ची की उम्र में आधी मां बन जाती है। बालिक होने के पहले ही उसने आधी जिंदगी जी ली है। कुछ ही समय बाद माता - पिता के लिए बेटी सयानी हो जाएगी और अब उसकी डोली उठने की तैयारी होने लगती है। 15 - 16 साल की होते होते उसका ब्याह हो जाता है। शादी के कुछ ही समय बाद वह पूरी मां बन जाती है और साथ ही दूसरे घर के पूरे सदस्यों की जिम्मेदारी भी उस पर आ जाती है। अब वह बच्चों की जिम्मेदारी संभालने के साथ बाहर का काम भी करती है। इतनी बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालने वाली को ही आखिर हमारे समाज में बोझ क्यों समझा जाता है। कुछ ऐसी ही कहानी है भारतीय महिलाओं की, जो बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालते-संभालते उम्र से पहले ही बडी हो जाती है। सभी का ख्याल रखते-रखते वह अपना ख्याल रखना भूल जाती है। बस इन्हीं कारणों से देश की महिलाएं कमजोर होती है और उनमें एनीमिया, हिमोग्लोबिन कम होता है। यहीं लडकी जब मां बनती है तो कमजोर होने के कारण बच्चों में कुपोषण होता है और शिशु मृत्यु और मातृत्व मृत्यु के लिए भी कहीं न कहीं यहीं जीवन शैली जिम्मेदार है। देश की महिलाओं और बच्चों में होने वाली समस्यों का सबसे बडा कारण गरीबी और दूसरा कारण महिलाओं को कम उम्र में सौपी जाने वाली जिम्मेदारियां है।
जहां एक ओर महिलाएं अंतरिक्ष में कदम रख रही है और हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है वहीं गांवों में आज भी महिलाएं लंबा घूंघट लेती है और 15 साल की उम्र में बच्चों की मां बन चुकी होती है। चाहे मघ्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के ग्राम पचुआ ,रिछैडा हो या छिंदवाडा जिले के बोरीमाल और कोकट लगभग सभी ग्रामों की यही कहानी है। वर्तमान में भारत में करीब 56 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हंै। इसका सबसे बडा कारण गांव की लडकियों का अपनी उम्र से पहले ही बडी होना माना जा सकता है।
गांव में अब भी महिलाएं पुरूषों के सामने पर्दे में ही रहती है और घर के बडों की उपस्थिति में नहीं बोलती। पहुंच मार्ग से अंदर के गांवों में हालात बहुत ही गंभीर है यहां महिलाएं न तो अपनी उम्र ठीक से जानती है और अन्य जरूरी बातों से भी अंजान है। यहां उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। कई गांवों में आंगनबाडी कार्यकर्ता दूसरे ग्रामों से आती है इसलिए वह उन्हें पर्याप्त समय नहीं दे पाती और कुछ स्थानों पर सहायिका बहुत ही कम पढी-लिखी है उन्हें स्वयं कई बातों का ज्ञान नहीं है। महिलाओं को गर्भवस्था के दौरान कई बातों का ध्यान रखना होता है। घर के बढे तो उन्हें समझाते है लेकिन मेडिकल की दृष्टि से भी कई बाते जरूरी होती है, जो उन्हें जानना जरूरी है, लेकिन कोई उन्हें सही सलाह देने वाला नहीं है। जहां तक माॅनीटरिंग का सवाल है तो पहुंच मार्ग से दूर बसे गांव में साल में एक या दो बार ही निरीक्षण होता है। जहां तक ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति की बात करें तो अभी कई ग्रामों में यह समिति नहीं बनीं है। जहां बनी है वहां समीति के सदस्यों को ही पता नहीं है कि वे समीति का हिस्सा है तो अपनी जिम्मेदारी निभाना तो दूर की बात है। समिति की सदस्य एवं सचिव आशा कार्यकर्ता होती है उनकी भी अपनी कई समस्याएं हैं जैसे कुछ क्षेत्रों की महिलाएं आसानी से बातों को नहीं समझती ऐसा ही उदाहरण होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के ग्राम रिछैडा में सामने आया। रिछैडा आदिवासी बहुल क्षे़त्र है और जंगल से लगा हुआ है। वहां की आशा कार्यकर्ता ने बताया कि टीका लगवाने से लेकर परिवार नियोजन सभी के लिए महिलाओं को समझाना बहुत टेढी खीर है। कई बार यदि महिलाएं मान जाएं तो उनके पति और घर के बडो को समझाना मुश्किल हो जाता है। कई सयानी महिलाएं कहती है कि हमें इतने बच्चे हो गए हमें तो कोई टीके नहीं लगे और सब बच्चे चंगे भले जन गए , जो तो बस ढकोसला है। यानि महिलाओं के निर्णय वे खुद नहीं लेती या तो उनके पति लेते है या उनके बडे - बुजुर्ग। महिला घर के हर सदस्य का पूरा ख्याल रखती है, लेकिन उसकी जरूरत और उसका ख्याल रखने वाला कोई नहीं होता है। उसके निर्णय में भी सभी का राजी होना जरूरी होता है।
आशा कार्यकर्ता कहती है कि महिलाओं को समझाने के लिए उनका शिक्षित होना बहुत जरूरी है, लेकिन जहां तक पढाई का सवाल है तो लडकियों को पढाने की अपेक्षा घर का काम कराना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। इसीलिए सपना कह बैठती है किं चाहती तो मैं भी हूं पढना पर छोटे भाईयों को कौन संभालेगा मां तो बनहारी पर जाती है मासूम सपना अपनी मासूमीयत में इतनी बडी बात कह बैठती है जो हमारे गांवों की सच्चाई को बयां करती है। सपना जैसी ही न जाने कितनी लडकियां हमारे गांवों में अपनी कई इच्छाओं को दबाएं अपना जीवन कांट रही है। इनमें से कई तो इसी को अपना जीवन मान चुकी है। इन लडकियों के नाम स्कूल में दर्ज होेते है , लेकिन मां के बनहारी पर जाने के कारण वह चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाती। वहीं यह भी देखा गया कि जब लडकी समझदार हो जाती है तो उसकी पढाई खुद -ब -खुद छूट जाती है। पैदा होते ही उसकी जिम्मेदारियां अपने आप ही तय हो जाती है लडका और लडकी के बीच आज भी जमीन - आसमान का अंतर है। पानी भरने से लेकर घर का हर काम सिर्फ वहीं करेगी क्योंकि वह लडकी हैै। जंगल से महुआ, गुल्ली और अचार इत्यादि बीनना उसी का काम है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम के दौरान कई तरह की सच्चाई सामने आई। 15 साल की राजाबाई जो पहली बार मां बनने जा रही है टीका लगवाने पहुंची तो बहुत घबरा रही थी। उससे जब पूछा कि इतनी कम उम्र में तुम्हारी शादी हो गई तुम्हे कैसा लगता है तो उसका जवाब था हमारे यहां ऐसा ही होता है। गांव में संपन्न परिवार के बच्चे ही पढने जाते है मजदूर वर्ग व अतिगरीब परिवार के बच्चे तो थोडा बहुत पढकर पढाई छोड देते है। जैसे ही लडकी कुछ बडी लगने लगती है उसकी शादी की बात शुरू कर दी जाती है और कब वह बच्चों की मां बन जाती है उसे भी पता नहीं चलता। गांव में सब कुछ अंदाजे से किया जाता है। गांव में आज भी जमकर बाल विवाह हो रहे है। जब मुख्यमंत्री द्वारा चलाए जा रहे कन्यादान योजना में नाबालिक लडकियों की शादी के मामला उभर कर सामने आए तो गांव की वास्तविकता क्या होगी इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
होशंगाबाद और छिंदवाडा के गांवों मंे भ्रमण करने पर वहां की महिलाओं को बहुत करीब से जानने का मौका मिला। गांव की महिलाएं दुनियादारी से बहुत दूर है। बचपन से ही बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालने के कारण वे अपने स्वाथ्य का ख्याल नहीं रख पाती है और इसी का नतीजा है कि हमारा देश महिलाओं और बच्चों से संबंधित बीमारियों में अव्वल है। बचपन से ही उम्र के मुताबिक पोषण आहार नहीं मिलने के कारण और स्वास्थ्य का ख्याल नहीं रखपाने के कारण बच्चों में कुपोषण और महिलाएं एनीमिया और हिमोग्लोबिन की कमी का दंश झेल रही है । लडकियों की उम्र से पहले शादी हो जाने और गर्भवति होने पर कई तरह की समस्याएं से दो-चार होना आम बात हैै। इसी के कारण मातृत्व और शिशु मृत्यु दर को लक्ष्य में खास कमी नहीं आ पा रही है। सामान्य दिन हो या गर्भवस्था के दौरान दोनों ही समय में महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया जाता है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम कवर करने के पर महिलाओं के स्वास्थ्य को करीब से जानने का मौका मिला। ग्रामों में ज्यादातर महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया गया और लगभग सभी में हिमाग्लोबिन की कमी भी थी। पिपरिया विकासखंड के ग्राम तरौनकला की एएनएम ने बताया कि यदि खून का रंग लाल नहीं होता फिका सा होता है तो उसमें हिमोग्लोबिन की कमी है और मेरे सामने बनाई गई लगभग सभी स्लाइड का रंग फीका ही था । टीका लगवाने आई रेखा दुबे गर्भवति है जब उन्होंने अपना वजन किया तो 45 किलो निकला जबकि उनका कहना था कि पिछले महिने भी उनका वजन 45 किलो ही था । जबकि गर्भ के दौरान हर महिने वजन बढ जाता है वहीं भागवती बाई 27 साल की है और उनका वनज मात्र 35 किलो ये तो चंद उदाहरण हैं गांव की अधिकतर महिलाओं का वजन अपनी उम्र से काफी कम होता है। इस तरह की महिलाएं ही हाई रिस्क में आती है, लेकिन उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता और यह उन्हीं 15 प्रतिशत में शामिल है, जिनके केस बिगड सकते हैं।
भारत की आबादी में आधे से अधिक महिलाएं और 24 प्रतिशत पुरूष एनीमिया के शिकार है। राष्टीय परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक एनीमिक महिलाओं का प्रतिशत बढता जा रहा है। जहां एनएफएचएस 2 में 52 फीसदी शादी शुदा महिलाएं एनीमिक थी वहीं एनएफएचएस 3 में 56 हो गई। वहीं एनएफएचएस 2 के मुताबिक 50 प्रतिशत गर्भवति महिलाएं एनीमिक थी और एनएफएचएस 3 में बढकर 59 हो गया है । एनएफएचएस 3 के मुताबिक मध्यप्रदेश में 6 से 35 माह के 82.6 प्रतिशत बच्चे एनिमिक पाएं गए जो एनएफएचएस 2 में 71.3 थे ।
जहां एक ओर महिलाएं अंतरिक्ष में कदम रख रही है और हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है वहीं गांवों में आज भी महिलाएं लंबा घूंघट लेती है और 15 साल की उम्र में बच्चों की मां बन चुकी होती है। चाहे मघ्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के ग्राम पचुआ ,रिछैडा हो या छिंदवाडा जिले के बोरीमाल और कोकट लगभग सभी ग्रामों की यही कहानी है। वर्तमान में भारत में करीब 56 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार हंै। इसका सबसे बडा कारण गांव की लडकियों का अपनी उम्र से पहले ही बडी होना माना जा सकता है।
गांव में अब भी महिलाएं पुरूषों के सामने पर्दे में ही रहती है और घर के बडों की उपस्थिति में नहीं बोलती। पहुंच मार्ग से अंदर के गांवों में हालात बहुत ही गंभीर है यहां महिलाएं न तो अपनी उम्र ठीक से जानती है और अन्य जरूरी बातों से भी अंजान है। यहां उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। कई गांवों में आंगनबाडी कार्यकर्ता दूसरे ग्रामों से आती है इसलिए वह उन्हें पर्याप्त समय नहीं दे पाती और कुछ स्थानों पर सहायिका बहुत ही कम पढी-लिखी है उन्हें स्वयं कई बातों का ज्ञान नहीं है। महिलाओं को गर्भवस्था के दौरान कई बातों का ध्यान रखना होता है। घर के बढे तो उन्हें समझाते है लेकिन मेडिकल की दृष्टि से भी कई बाते जरूरी होती है, जो उन्हें जानना जरूरी है, लेकिन कोई उन्हें सही सलाह देने वाला नहीं है। जहां तक माॅनीटरिंग का सवाल है तो पहुंच मार्ग से दूर बसे गांव में साल में एक या दो बार ही निरीक्षण होता है। जहां तक ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समीति की बात करें तो अभी कई ग्रामों में यह समिति नहीं बनीं है। जहां बनी है वहां समीति के सदस्यों को ही पता नहीं है कि वे समीति का हिस्सा है तो अपनी जिम्मेदारी निभाना तो दूर की बात है। समिति की सदस्य एवं सचिव आशा कार्यकर्ता होती है उनकी भी अपनी कई समस्याएं हैं जैसे कुछ क्षेत्रों की महिलाएं आसानी से बातों को नहीं समझती ऐसा ही उदाहरण होशंगाबाद जिले के पिपरिया विकासखंड के ग्राम रिछैडा में सामने आया। रिछैडा आदिवासी बहुल क्षे़त्र है और जंगल से लगा हुआ है। वहां की आशा कार्यकर्ता ने बताया कि टीका लगवाने से लेकर परिवार नियोजन सभी के लिए महिलाओं को समझाना बहुत टेढी खीर है। कई बार यदि महिलाएं मान जाएं तो उनके पति और घर के बडो को समझाना मुश्किल हो जाता है। कई सयानी महिलाएं कहती है कि हमें इतने बच्चे हो गए हमें तो कोई टीके नहीं लगे और सब बच्चे चंगे भले जन गए , जो तो बस ढकोसला है। यानि महिलाओं के निर्णय वे खुद नहीं लेती या तो उनके पति लेते है या उनके बडे - बुजुर्ग। महिला घर के हर सदस्य का पूरा ख्याल रखती है, लेकिन उसकी जरूरत और उसका ख्याल रखने वाला कोई नहीं होता है। उसके निर्णय में भी सभी का राजी होना जरूरी होता है।
आशा कार्यकर्ता कहती है कि महिलाओं को समझाने के लिए उनका शिक्षित होना बहुत जरूरी है, लेकिन जहां तक पढाई का सवाल है तो लडकियों को पढाने की अपेक्षा घर का काम कराना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। इसीलिए सपना कह बैठती है किं चाहती तो मैं भी हूं पढना पर छोटे भाईयों को कौन संभालेगा मां तो बनहारी पर जाती है मासूम सपना अपनी मासूमीयत में इतनी बडी बात कह बैठती है जो हमारे गांवों की सच्चाई को बयां करती है। सपना जैसी ही न जाने कितनी लडकियां हमारे गांवों में अपनी कई इच्छाओं को दबाएं अपना जीवन कांट रही है। इनमें से कई तो इसी को अपना जीवन मान चुकी है। इन लडकियों के नाम स्कूल में दर्ज होेते है , लेकिन मां के बनहारी पर जाने के कारण वह चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाती। वहीं यह भी देखा गया कि जब लडकी समझदार हो जाती है तो उसकी पढाई खुद -ब -खुद छूट जाती है। पैदा होते ही उसकी जिम्मेदारियां अपने आप ही तय हो जाती है लडका और लडकी के बीच आज भी जमीन - आसमान का अंतर है। पानी भरने से लेकर घर का हर काम सिर्फ वहीं करेगी क्योंकि वह लडकी हैै। जंगल से महुआ, गुल्ली और अचार इत्यादि बीनना उसी का काम है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम के दौरान कई तरह की सच्चाई सामने आई। 15 साल की राजाबाई जो पहली बार मां बनने जा रही है टीका लगवाने पहुंची तो बहुत घबरा रही थी। उससे जब पूछा कि इतनी कम उम्र में तुम्हारी शादी हो गई तुम्हे कैसा लगता है तो उसका जवाब था हमारे यहां ऐसा ही होता है। गांव में संपन्न परिवार के बच्चे ही पढने जाते है मजदूर वर्ग व अतिगरीब परिवार के बच्चे तो थोडा बहुत पढकर पढाई छोड देते है। जैसे ही लडकी कुछ बडी लगने लगती है उसकी शादी की बात शुरू कर दी जाती है और कब वह बच्चों की मां बन जाती है उसे भी पता नहीं चलता। गांव में सब कुछ अंदाजे से किया जाता है। गांव में आज भी जमकर बाल विवाह हो रहे है। जब मुख्यमंत्री द्वारा चलाए जा रहे कन्यादान योजना में नाबालिक लडकियों की शादी के मामला उभर कर सामने आए तो गांव की वास्तविकता क्या होगी इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है।
होशंगाबाद और छिंदवाडा के गांवों मंे भ्रमण करने पर वहां की महिलाओं को बहुत करीब से जानने का मौका मिला। गांव की महिलाएं दुनियादारी से बहुत दूर है। बचपन से ही बडी-बडी जिम्मेदारियों को संभालने के कारण वे अपने स्वाथ्य का ख्याल नहीं रख पाती है और इसी का नतीजा है कि हमारा देश महिलाओं और बच्चों से संबंधित बीमारियों में अव्वल है। बचपन से ही उम्र के मुताबिक पोषण आहार नहीं मिलने के कारण और स्वास्थ्य का ख्याल नहीं रखपाने के कारण बच्चों में कुपोषण और महिलाएं एनीमिया और हिमोग्लोबिन की कमी का दंश झेल रही है । लडकियों की उम्र से पहले शादी हो जाने और गर्भवति होने पर कई तरह की समस्याएं से दो-चार होना आम बात हैै। इसी के कारण मातृत्व और शिशु मृत्यु दर को लक्ष्य में खास कमी नहीं आ पा रही है। सामान्य दिन हो या गर्भवस्था के दौरान दोनों ही समय में महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया जाता है। विभिन्न ग्रामों के टीकाकरण कार्यक्रम कवर करने के पर महिलाओं के स्वास्थ्य को करीब से जानने का मौका मिला। ग्रामों में ज्यादातर महिलाओं का वजन उनकी उम्र से कम ही पाया गया और लगभग सभी में हिमाग्लोबिन की कमी भी थी। पिपरिया विकासखंड के ग्राम तरौनकला की एएनएम ने बताया कि यदि खून का रंग लाल नहीं होता फिका सा होता है तो उसमें हिमोग्लोबिन की कमी है और मेरे सामने बनाई गई लगभग सभी स्लाइड का रंग फीका ही था । टीका लगवाने आई रेखा दुबे गर्भवति है जब उन्होंने अपना वजन किया तो 45 किलो निकला जबकि उनका कहना था कि पिछले महिने भी उनका वजन 45 किलो ही था । जबकि गर्भ के दौरान हर महिने वजन बढ जाता है वहीं भागवती बाई 27 साल की है और उनका वनज मात्र 35 किलो ये तो चंद उदाहरण हैं गांव की अधिकतर महिलाओं का वजन अपनी उम्र से काफी कम होता है। इस तरह की महिलाएं ही हाई रिस्क में आती है, लेकिन उन पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता और यह उन्हीं 15 प्रतिशत में शामिल है, जिनके केस बिगड सकते हैं।
भारत की आबादी में आधे से अधिक महिलाएं और 24 प्रतिशत पुरूष एनीमिया के शिकार है। राष्टीय परिवार सर्वेक्षण के मुताबिक एनीमिक महिलाओं का प्रतिशत बढता जा रहा है। जहां एनएफएचएस 2 में 52 फीसदी शादी शुदा महिलाएं एनीमिक थी वहीं एनएफएचएस 3 में 56 हो गई। वहीं एनएफएचएस 2 के मुताबिक 50 प्रतिशत गर्भवति महिलाएं एनीमिक थी और एनएफएचएस 3 में बढकर 59 हो गया है । एनएफएचएस 3 के मुताबिक मध्यप्रदेश में 6 से 35 माह के 82.6 प्रतिशत बच्चे एनिमिक पाएं गए जो एनएफएचएस 2 में 71.3 थे ।
Friday, August 20, 2010
बेरोजगारी और अस्वस्थता
स्वस्थ समाज की कल्पना में बेरोजगारी सबसे बडा रोढा है । जब भर पेट खाना नसीब नहीं होगा तो व्यक्ति के स्वस्थ रहने की कल्पना करना बेमायने है । देश में बेरोजगारी की दर करीब 10.7 है बेरोजगारी के मामले में भारत 155 वे स्थान पर है । यानि इतने लोग रोजाना रोटी की जुगत में दिन कांटते है कभी पेट में अन्न के दो दाने चले जाते है तो कभी खाली पेट ही नींद को बुलाना पडता है । गरीबों को रोजगार देेने के लिए सरकार ने नरेगा की शुरूआत तो की लेकिन जमीनी स्तर पर पडताल करने पर पता चलता है कि जरूरतमंदों को ही इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है । जब इस योजना के बारे में पिपरिया ब्लाक के समीस्थ ग्रामों में जाकर जायजा लिया तो हाल काफी बेहाल नजर आएं । पिपरिया के समीस्थ ग्राम तरौनकला में अधिकतर लोगों के पास जाॅब कार्ड तो बने है , लेकिन सिर्फ नाम के लिए । इसके तहत वर्ष 2009 में किसी को तीन दिन काम मिला तो किसी को पांच दिन और कई लोगों ने बताया कि जितना काम किया उतना पैसा भी नहीं मिला । हरीपाल कार्ड क्रमांक 0503 के जाॅब कार्ड देखने पर पता चला कि पिछले साल उसमें करीब तीन दिन के लिए काम मिला । हरीपाल कहते है कि मंै तो बांस से टोकनी व सूपा बनाने के अपने पैतिृक कार्य करता हूं, लेकिन आजकल बांस नहीं मिलने के कारण रोटी की तलाश के लिए सरकारी योजना में काम की तलाश में लगा रहता हूं लेकिन इसके सहारे भी रोजी-रोटी नहीं चल पा रही है । उसने बताया कि रोजगार नहीं मिलने और ध्ंाधा नहीं चल पाने के कारण परिवार का पेट पालना बहुत मुश्किल हो गया है ।
प्रिवार में कमाने वाला मंै ही हूं बांस मिल जाते है तो मेरी पत्नी भी काम में मेरा सहयोग कर करती है । अब राशन काॅर्ड ही एक मात्र सहारा है, लेकिन उसमें भी 30 किलों के बजाय सिर्फ 20 किलों अनाज मिलता है पिछले 4-5 महिने से तो चावल मिल ही नहीं रहा । इतने में अच्छे से गुजारा नहीं हो पाता है । यहीं कारण है कि गांव में महिलाओं में एनीमिया की शिकायत रहती है जब माता को ही अच्छा व पर्याप्त भोजन नहीं मिलेगा तो बच्चा तो कुपोषित होगा ही । आंगनबाडी में भी महिलाओं को सिर्फ पोषण दिवस के दिन ही खिचडी या हलवा मिलता है । वहीं मुन्नालाल जिसका पंजीयन क्रमांक 0382 है उसका तो अभी तक खाता भी नहीं खुल पाया है । इस योजना के तहत उसे अभी तक काम नहीं मिला है ।
जहां तक बजट का सवाल है तो पिपरिया ब्लाॅेक का लेबर बजट वर्ष 2009-10 में 5 करोड 35 लाख रूपए था जिसमें से 2 कर्रोड 680 लाख रूपए का उपयोग हुआ । वर्ष 2010-11 के लिए 5 करोड 60 लाख का बजट आया है । पिपरिया की 53 ग्राम पंचायतों में 27,643 जाॅब कार्डधारी हैं, जिनमें से 3 हजार 761 मजदूरों ने अब तक काम किया है । इस योजना के तहत 456 कामों का लक्ष्य था इसके विपरीत कुल 134 काम ही हो पाए है ।ग्राम तरौनकलां में 889 गरीबी रेखा के अंतर्गत आने वाले ऐसे परिवार है जो नरेगा के तहत पंजीबद्व है । जबकि काम करने वालों की संख्या 2230 है जिनमें से सिर्फ 8.07 फीसदी लोगों के ही एकाउंट खुले हैं । ग्राम के सचिव से मिली जानकारी के मुताबिक वर्ष 2008-09 में कुल 100 लोगों ने ही इसके तहत काम किया । गांव में यह योजना क्यों फैल हो रही है इस संबंध में पंचायत के सरपंच व सचिव इसका सीधा जिम्मेदार लोगों को ही ठहरा देते है उनका कहना है कि लोग इस योजना का लाभ ही नहीं उठाना चाहते वहीं दूसरी ओर लोगों का कहना है कि कौन भूखा मरना चाहता है यदि काम मिलेगा तो हम क्यों नहीं करेंगे । जब काम ही नहीं देंगे तो हम कैसे करेंगे ।
स्वास्थ्य का सीधा संबंध भरपेट भोजन से है जब तक भरपेट भोजन नहीं मिलेगा तब तक आदमी स्वस्थ कैसे रह सकता हैं । रोजगार नहीं होने के कारण ही बीमारियों का ग्राफ बढता जा रहा है । मातृत्व मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के लिए भी कहीं न कहीं यह जिम्मेदार है । गर्भावस्था के दौरान मां को अपने और बच्चे दोंनों के लिए आहार लेना होता है, लेकिन उसे अपने लिए ही पेट भर भोजन नहीं मिल पाात तो बच्चा तो दूर की बात है । समय पर वह संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण लोग विभिन्न बीमारियों का शिकार हो जाते है यदि बीमारियों और मृत्यु को रोकना है तो सबसे पहले बेरोजगारी को मिटाने की पहल करना होगा ।
प्रिवार में कमाने वाला मंै ही हूं बांस मिल जाते है तो मेरी पत्नी भी काम में मेरा सहयोग कर करती है । अब राशन काॅर्ड ही एक मात्र सहारा है, लेकिन उसमें भी 30 किलों के बजाय सिर्फ 20 किलों अनाज मिलता है पिछले 4-5 महिने से तो चावल मिल ही नहीं रहा । इतने में अच्छे से गुजारा नहीं हो पाता है । यहीं कारण है कि गांव में महिलाओं में एनीमिया की शिकायत रहती है जब माता को ही अच्छा व पर्याप्त भोजन नहीं मिलेगा तो बच्चा तो कुपोषित होगा ही । आंगनबाडी में भी महिलाओं को सिर्फ पोषण दिवस के दिन ही खिचडी या हलवा मिलता है । वहीं मुन्नालाल जिसका पंजीयन क्रमांक 0382 है उसका तो अभी तक खाता भी नहीं खुल पाया है । इस योजना के तहत उसे अभी तक काम नहीं मिला है ।
जहां तक बजट का सवाल है तो पिपरिया ब्लाॅेक का लेबर बजट वर्ष 2009-10 में 5 करोड 35 लाख रूपए था जिसमें से 2 कर्रोड 680 लाख रूपए का उपयोग हुआ । वर्ष 2010-11 के लिए 5 करोड 60 लाख का बजट आया है । पिपरिया की 53 ग्राम पंचायतों में 27,643 जाॅब कार्डधारी हैं, जिनमें से 3 हजार 761 मजदूरों ने अब तक काम किया है । इस योजना के तहत 456 कामों का लक्ष्य था इसके विपरीत कुल 134 काम ही हो पाए है ।ग्राम तरौनकलां में 889 गरीबी रेखा के अंतर्गत आने वाले ऐसे परिवार है जो नरेगा के तहत पंजीबद्व है । जबकि काम करने वालों की संख्या 2230 है जिनमें से सिर्फ 8.07 फीसदी लोगों के ही एकाउंट खुले हैं । ग्राम के सचिव से मिली जानकारी के मुताबिक वर्ष 2008-09 में कुल 100 लोगों ने ही इसके तहत काम किया । गांव में यह योजना क्यों फैल हो रही है इस संबंध में पंचायत के सरपंच व सचिव इसका सीधा जिम्मेदार लोगों को ही ठहरा देते है उनका कहना है कि लोग इस योजना का लाभ ही नहीं उठाना चाहते वहीं दूसरी ओर लोगों का कहना है कि कौन भूखा मरना चाहता है यदि काम मिलेगा तो हम क्यों नहीं करेंगे । जब काम ही नहीं देंगे तो हम कैसे करेंगे ।
स्वास्थ्य का सीधा संबंध भरपेट भोजन से है जब तक भरपेट भोजन नहीं मिलेगा तब तक आदमी स्वस्थ कैसे रह सकता हैं । रोजगार नहीं होने के कारण ही बीमारियों का ग्राफ बढता जा रहा है । मातृत्व मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के लिए भी कहीं न कहीं यह जिम्मेदार है । गर्भावस्था के दौरान मां को अपने और बच्चे दोंनों के लिए आहार लेना होता है, लेकिन उसे अपने लिए ही पेट भर भोजन नहीं मिल पाात तो बच्चा तो दूर की बात है । समय पर वह संतुलित आहार नहीं मिलने के कारण लोग विभिन्न बीमारियों का शिकार हो जाते है यदि बीमारियों और मृत्यु को रोकना है तो सबसे पहले बेरोजगारी को मिटाने की पहल करना होगा ।
मैं , मेरे पापा और गैलडुब्बा............
बस.............. अब इसके आगे गाडी नहीं जाएंगी तो कैसे जाएंगे। अब आपको करीब 500-600 मीटर नीचे पैदल ही जाना होगा । चलो सिंधौली में किसी कमांडर वाले से बात करते है शायद वह पहुंचा सकें । सिंधौली का कोई भी डाईवर चलने को तैयार नहीं हुआ । आखिरकार उतना रास्ता पैदल ही तय करने का निश्चय हुआ। पहाड का शार्टकट रास्ता बताने के लिए सिंधौली से एक लडका हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गया । यह वाक्या मप्र के छिंदवाडा जिले में तामिया ब्लाक स्थित पतालकोट के ग्राम गैलडुब्बा की यात्रा का है। यह यात्रा ता जिंदगी मेरे जहन में ताजी रहेगी। दरअसल मेरी फैलोशिप के सिलसिले में मै गैलडुब्बा जाना चाहती थी तो पापा ने कहा कि वहां अकेली कैसे जाएंगी। गाडी से चलते है तो तय हुआ कि हम गाडी से जाएंगे। सुबह 10 बजे करीब पिपरिया गृह निवास से गैलडुब्बा के लिए निकले मेरे साथ मेरे पापा और डाईवर भईया थे।
पहाड उतरते वक्त मेरे जहन में कई सवाल घूम रहे थे कि आखिर कैसी जगह होगी कैसे लोग होंगे वे किस तरह रहते होंगे। पैदल रास्ता तय करने में मुझे सिर्फ यहीं चिंता हो रही थी कि पापा मेरे कारण परेशान हो रहे है क्यांेकि इस तरह का उबड-खाबड रास्ता जब मै तय नहीं कर पा रही तो उन्हें कितनी परेशानी हो रही होगी । पापा बार-बार उस लडके से पूछ रहे थे कि इसके बाद कितना रास्ता और बाकी है। रही सही कसर पानी ने पूरी कर दी । उस दिन रह रहकर पानी गिर रहा था, खैर ज्यादा तेज बरसात नहीं हुई। पहाड उतरते वक्त यहीं डर लग रहा था कि यदि पैर फिसला तो सीधे नीचे पहुंचेगे। किसी तरह पहाड का रास्ता पूरा हुआ अब बाकी का रास्ता रोड से ही तय करना था क्योंकि इसके बाद कोई शार्टकट नहीं था। रोड पर आने के बाद मैने कुछ राहत की सांस ली और अब प्रकृति के अविस्मरणीय दृश्यों को देखते ही थकान धीरे-धीरे उतर रही थी। नीचे से पहाड और हरियाली को देखना कितना सुखद था इसका वर्णन शब्दों में करना तो मेरे लिए आसान नहीं होगा, लेकिन वहां के हर एक दृश्य आज भी मेरी आंखों में तैर जाते हैं । प्रकृति के साथ के बीच करीब 2 घंटे चलने के बाद गैलडुब्बा आ ही गया और मैंने देखा कि निर्माणाधीन बिल्डिंग में मजदूर कार्य कर रहे है। पूछने पर पता चला कि छात्रावास की बिल्डिंग बन रही है। दरअसल जब मुख्यमंत्री इस क्षेत्र मे आएं तो कई घोषणाएं करके गए थे यह उनमें से एक है।
आगे बढने पर थोडी उपर की ओर छात्रावास था जब मैंने छात्रावास में कदम रखा तो देखा कि बच्चे पलग के गददे हटाकर उस पर बस्ता रखकर बैठे है। तीन कमरों में स्कूल चल रहा है यह स्कूल आंठवी तक है और एक कक्ष में हर कक्षा के बच्चे मिल जाएंगे । पांच शिक्षकों का स्टाफ है, लेकिन आज दो ही शिक्षिकाएं स्कूल संभाल रही थी। दोनों शिक्षिकाएं तामिया से आती है और दोनों ने बताया कि कई बार यहीं रूक जाते है काम नहीं रहता तो घर चले जाते है। यहां से कर्रापानी तक तो पैदल ही जाना पडता है। कोई साधन नहीं है शुरूआत में तो आने में काफी थक जाते थे अब धीरे-धीरे आदत पड रही है। घरों के बीच दूरी अधिक होने के कारण हर घर में जाना तो संभव नहीं था तो कुछ घरों में जाना हुआ। यहां भारिया आदिवासी रहते है। यहां हर एक घर के बीच करीब आधे से एक किलोमीटर का अंतर है। यहां के आदिवासी उचित मूल्य की दुकानों से मिलने वाले राशन और मक्का ही ज्यादातर खाते है। ये लोग हिन्दी भी समझते है और यहां स्कूल और आंगनबाडी भी है। यहां सब हेल्थ सेंटर भी है, लेकिन वहां किसी तरह की सुविधाएं नहीं है। कुछ समय से टीकाकरण कार्यक्रम तो हो रहा है, लेकिन बरसात में कई दिनों तक नहीं हो पाता । यहां से उपर आने - जाने की सुविधा नहीं होने के कारण एक टस्ट ने आॅटो दान में दिया है, लेकिन आॅटो में डीजल नहीं होने के कारण भी कई बार पैदल ही जाना पडता है। कर्रापानी तक जाना यहां के रहवासियों की आदत में शुमार हो चुका है। आने-जाने की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भावस्था के दौरान काॅफी समस्याएं आती है। सबसे बडी बात तो यह कि कई बार महिलाएं पहाड चढकर अस्पताल जाती है। ऐसे में यदि कोई अनहोनी हो जाएं तो कौन उसकी जिम्मेदारी लेगा। वहीं कुछ पुरूषों ने बताया कि कई बार उठा कर भी ले जाना पडता है। ग्रामवासियों ने बताया कि तबीयत खराब में भी ऐसे ही जाना पडता हैै। जब साधन ही नहीं मिलते तो क्या करें ।
क्षेत्र में अटूट प्राकृतिक सौंदर्यता है, जिस ओर देखों आंखों में चमक आ जाती है और हरियाली देखकर मन खिल उठता है। वहां से वापस लौटते समय मेरी चढने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी, लेकिन चढना तो था। हमारे साथ आएं लडके ने पूछा कि पहाड चढना आपके लिए कठिन होगा तो मैंने भी कहा कि ठीक है कच्चे रास्ते से ही चलते है। चढने में पापा और मैं पूरे पसीने में नहा लिए थे और वह लडका आराम से चढ रहा था । जब आखिरी चढाव बचा था तब पापा ने उससे कहा कि तुम चले जाओ हम लोग धीरे-धीरे आते हैं। वह तो फटा-फट चढ गया और दो -तीन मिनिट बाद ही वह दिखना बंद हो गया। तभी वहीं से बांसुरी की सुरिली धुन सुनाई पडी नीचे की ओर देखा तो एक ग्वाला जो गायों को घास चराने लाया था वह बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी की तान प्रकृति की सुंदरता मंे चार चांद लगा रही थी। ऐसा माहौल मैंने पहली बार देखा था। अब धीरे-धीरे गाडी दिखाई देने लगी थी और मेरे पैरों ने भी जवाब दे दिया था। उपर पहुंचकर जब नीचे की ओर देखा तो अपार सौंदर्य ऐसा लग रहा था मानो यही स्वर्ग है। तभी आसमान की ओर देखा तो नीला और सफेद रंग का मिलाव अत्यंत सुंदर लग रहा था। तामिया और उसके आसपास के गांवों की प्राकृतिक सौंदर्यता का तो कोई सानी नहीं है। हर एक पल प्रकृति के बहुरंगे और सुंदर दृश्य देखने को मिलते जो आंखों में ऐसे बस जाते है कि भुलाए नहीं भुलते और फिर गैलडुब्बा की यात्रा तो मेरे जहन में हमेशा ताजी रहेगी।
पहाड उतरते वक्त मेरे जहन में कई सवाल घूम रहे थे कि आखिर कैसी जगह होगी कैसे लोग होंगे वे किस तरह रहते होंगे। पैदल रास्ता तय करने में मुझे सिर्फ यहीं चिंता हो रही थी कि पापा मेरे कारण परेशान हो रहे है क्यांेकि इस तरह का उबड-खाबड रास्ता जब मै तय नहीं कर पा रही तो उन्हें कितनी परेशानी हो रही होगी । पापा बार-बार उस लडके से पूछ रहे थे कि इसके बाद कितना रास्ता और बाकी है। रही सही कसर पानी ने पूरी कर दी । उस दिन रह रहकर पानी गिर रहा था, खैर ज्यादा तेज बरसात नहीं हुई। पहाड उतरते वक्त यहीं डर लग रहा था कि यदि पैर फिसला तो सीधे नीचे पहुंचेगे। किसी तरह पहाड का रास्ता पूरा हुआ अब बाकी का रास्ता रोड से ही तय करना था क्योंकि इसके बाद कोई शार्टकट नहीं था। रोड पर आने के बाद मैने कुछ राहत की सांस ली और अब प्रकृति के अविस्मरणीय दृश्यों को देखते ही थकान धीरे-धीरे उतर रही थी। नीचे से पहाड और हरियाली को देखना कितना सुखद था इसका वर्णन शब्दों में करना तो मेरे लिए आसान नहीं होगा, लेकिन वहां के हर एक दृश्य आज भी मेरी आंखों में तैर जाते हैं । प्रकृति के साथ के बीच करीब 2 घंटे चलने के बाद गैलडुब्बा आ ही गया और मैंने देखा कि निर्माणाधीन बिल्डिंग में मजदूर कार्य कर रहे है। पूछने पर पता चला कि छात्रावास की बिल्डिंग बन रही है। दरअसल जब मुख्यमंत्री इस क्षेत्र मे आएं तो कई घोषणाएं करके गए थे यह उनमें से एक है।
आगे बढने पर थोडी उपर की ओर छात्रावास था जब मैंने छात्रावास में कदम रखा तो देखा कि बच्चे पलग के गददे हटाकर उस पर बस्ता रखकर बैठे है। तीन कमरों में स्कूल चल रहा है यह स्कूल आंठवी तक है और एक कक्ष में हर कक्षा के बच्चे मिल जाएंगे । पांच शिक्षकों का स्टाफ है, लेकिन आज दो ही शिक्षिकाएं स्कूल संभाल रही थी। दोनों शिक्षिकाएं तामिया से आती है और दोनों ने बताया कि कई बार यहीं रूक जाते है काम नहीं रहता तो घर चले जाते है। यहां से कर्रापानी तक तो पैदल ही जाना पडता है। कोई साधन नहीं है शुरूआत में तो आने में काफी थक जाते थे अब धीरे-धीरे आदत पड रही है। घरों के बीच दूरी अधिक होने के कारण हर घर में जाना तो संभव नहीं था तो कुछ घरों में जाना हुआ। यहां भारिया आदिवासी रहते है। यहां हर एक घर के बीच करीब आधे से एक किलोमीटर का अंतर है। यहां के आदिवासी उचित मूल्य की दुकानों से मिलने वाले राशन और मक्का ही ज्यादातर खाते है। ये लोग हिन्दी भी समझते है और यहां स्कूल और आंगनबाडी भी है। यहां सब हेल्थ सेंटर भी है, लेकिन वहां किसी तरह की सुविधाएं नहीं है। कुछ समय से टीकाकरण कार्यक्रम तो हो रहा है, लेकिन बरसात में कई दिनों तक नहीं हो पाता । यहां से उपर आने - जाने की सुविधा नहीं होने के कारण एक टस्ट ने आॅटो दान में दिया है, लेकिन आॅटो में डीजल नहीं होने के कारण भी कई बार पैदल ही जाना पडता है। कर्रापानी तक जाना यहां के रहवासियों की आदत में शुमार हो चुका है। आने-जाने की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भावस्था के दौरान काॅफी समस्याएं आती है। सबसे बडी बात तो यह कि कई बार महिलाएं पहाड चढकर अस्पताल जाती है। ऐसे में यदि कोई अनहोनी हो जाएं तो कौन उसकी जिम्मेदारी लेगा। वहीं कुछ पुरूषों ने बताया कि कई बार उठा कर भी ले जाना पडता है। ग्रामवासियों ने बताया कि तबीयत खराब में भी ऐसे ही जाना पडता हैै। जब साधन ही नहीं मिलते तो क्या करें ।
क्षेत्र में अटूट प्राकृतिक सौंदर्यता है, जिस ओर देखों आंखों में चमक आ जाती है और हरियाली देखकर मन खिल उठता है। वहां से वापस लौटते समय मेरी चढने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी, लेकिन चढना तो था। हमारे साथ आएं लडके ने पूछा कि पहाड चढना आपके लिए कठिन होगा तो मैंने भी कहा कि ठीक है कच्चे रास्ते से ही चलते है। चढने में पापा और मैं पूरे पसीने में नहा लिए थे और वह लडका आराम से चढ रहा था । जब आखिरी चढाव बचा था तब पापा ने उससे कहा कि तुम चले जाओ हम लोग धीरे-धीरे आते हैं। वह तो फटा-फट चढ गया और दो -तीन मिनिट बाद ही वह दिखना बंद हो गया। तभी वहीं से बांसुरी की सुरिली धुन सुनाई पडी नीचे की ओर देखा तो एक ग्वाला जो गायों को घास चराने लाया था वह बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी की तान प्रकृति की सुंदरता मंे चार चांद लगा रही थी। ऐसा माहौल मैंने पहली बार देखा था। अब धीरे-धीरे गाडी दिखाई देने लगी थी और मेरे पैरों ने भी जवाब दे दिया था। उपर पहुंचकर जब नीचे की ओर देखा तो अपार सौंदर्य ऐसा लग रहा था मानो यही स्वर्ग है। तभी आसमान की ओर देखा तो नीला और सफेद रंग का मिलाव अत्यंत सुंदर लग रहा था। तामिया और उसके आसपास के गांवों की प्राकृतिक सौंदर्यता का तो कोई सानी नहीं है। हर एक पल प्रकृति के बहुरंगे और सुंदर दृश्य देखने को मिलते जो आंखों में ऐसे बस जाते है कि भुलाए नहीं भुलते और फिर गैलडुब्बा की यात्रा तो मेरे जहन में हमेशा ताजी रहेगी।
Wednesday, August 4, 2010
कुपोषण के साथ जीने की मजबूरी
यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। मध्यप्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है।
दीपक की मां बडे भोलेपन के साथ कहती है कि हर आठ-पंद्रह दिन मंे जाहेे कछु ना कछु होत रहत है। कछु पीरो सो भी रहत है और बहुत कमजोर है। नन्ही बाई अपने बेटे दीपक के बारे में कहती है कि इलाज चल रओ है मगर कछु अंतर समझ नहीं पड रओ। नन्ही बाई और उनके पति दोनों मजदूरी करते है और 30-40 रूपए की आमदनी है। दीपक डेढ साल का है और उसका कद 28 इंच है और वजन 6 किलो है। नन्हीबाई ने बताया कि गरीबी रेखा का कार्ड भी नहीं बना है तो कंटोल से राशन भी नहीं मिलता मजदूरी के भरोसे ही चल रहे है। कभी चटनी तो कभी रूखी रोटी खाते है। वे कहती है कि महीने चढे होने के बाद भी मजदूरी पर जाते है नहीं जाएंगे तो खांएगे क्या। हरीजन बस्ती की महिलाएं बताती है कि कई बार तो ऐसा हुआ कि मजूरी से आए और अस्पताल भी नहीं जा पांए और बच्चा हो गया। दीपक को 14 दिन तक पिपरिया के पोषण पुर्नवास केंद्र में रखा गया था और चार बार फालोअप के लिए भी गई थी। लेकिन अभी भी दीपक की हालत सुधरी नहीं है। नन्ही बाई से पूछा कि दीपक को खाने में क्या - क्या देती हो तो बोली जो हम खाते है वही देते है। कभी रोटी दाल तो कभी चावल । जब पूछा कि डाक्टर ने क्या बताया था तो कहती है उनने तो बताया था मगर जो होगा वहीं तो खांएगे। पोषण पुर्नवास क्यों नही ले जाती तो नन्ही बाई कहती है कि डाक्टर ने कहा कि अब ठीक हो जाऐगा। दरअसल नन्ही बाई का बेटा दीपक कुपोषित है। लेकिन वह नहीं जानती कि उसका बेटा कुपोषण का शिकार है। होशंगाबाद जिले के पिपरिया से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम पचुआ में महिलाओं के हालात ऐसे ही है। वहां की महिलाएं बस यह जानती है कि उनका बच्चा कमजोर है मगर बीमारी के कारण से वह पूरी तरह अंजान है। हालात यह है कि गांव की आंगनबाडी भी पिछले एक महीने से नहीं लग रही है। जिले के ऐसे ग्राम जहां पहुंच मार्ग नहीं है वहां स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह लचर है और जिम्मेदार अधिकारियों को वहां के हालातों को जानने में कोई रूचि नहीं है।
कुपोषण की स्थिति जानने के लिए जिले के कुछ ग्रामों का दौरा किया तो सभी जगह स्थिति बहुत गंभीर नजर आई। खासतौर पर पहुंच वहीन गांवों के हालात तो बहुत बदतर है। यहां गरीबों को देखने वाला कोई नहीं है जबकि एनएफएचएस 3 के मुताबिक प्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है। हरिजन बस्ती और मजदूर वर्ग के बच्चे अधिक कमजोर पाएं गए क्योंकि इन महिलाओं को गर्भवति होने के दौरान और सामान्य दिनों में भी पोषण आहार नहीं मिलता है यहीं वजह है कि बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। जबकि यूनिसेफ की गाइडलाइन के मुताबिक कुपोषित बच्चों को भरपूर पोषण आहार मिलना चाहिए, उन्हे हाई फाइबर युक्त भोजन , फल और हरी सब्जियां अधिक से अधिक खिलाना चाहिए । पचुआ में टीकाकरण कराने पहुंची भागवती बाई की तीन लडकिया है और यह चैथा है। भागवती 27 बरस की है और उनका वजन 35 किलो है और कद 4.8 इंच है। जब उनसे भोजन के बारे में पूछा तो कहा मजदूरी करके जितना कमा लेते है उसी हिसाब से भोजन हो पाता है। कभी 30 तो कभी 50 रूपए मिलते है उसी आधार पर घर चलाते है। वे बताती है कि गर्भावस्था के दौरान भी भोजन में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया है। जबकि जनस्वास्थ्य सहयोग संस्था द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार मेहनत करने वाली गर्भवति महिला को 575 ग्राम अनाज, 50 ग्राम दाल, 50 ग्राम तेल और 100 ग्राम भाजी खाना चाहिए। नेशनल रिसर्च काउंसिल सब कमेटी आॅफ यूएसए के मुताबिक गर्भवति महिला को 2400 किलो कैलोरी एनर्जी, 1000 ग्राम विटामिन ए, 1200 मिली ग्राम कैल्श्यिम आदि मिलना जरूरी है लेकिन जिनके पास रोजगार का स्थाई साधन नहीं है उन्हें जब जैसा काम मिलता है कर लेते है। ऐसे में पोषण आहार और गर्भावस्था के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां वह कैसे रखेंगी और जब तक मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं होगी तब तक बच्चे के स्वस्थ होने की कल्पना करना बेकार है।
आंगनबाडी के रिकार्ड भी इस बात को पुख्ता करते है कि बच्चों का विकास उम्र के मुताबिक नहंी हो रहा है। जब पिपरिया विकासखंड से सटे ग्राम डापका की आंगनबाडी का औचक निरीक्षण किया गया तो वहां दर्ज बच्चों का वजन उम्र के लिहाज से काफी कम है। रिकार्ड के मुताबिक 5 वर्ष की रूबी का वजन 12.40, 5 वर्ष के पंकज का वजन 13 किलो है जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक इस उम्र में बच्चों का वजन 20.2 के करीब होना चाहिए। जब आंगनबाडी में आने वाले बच्चों का वजन ही उम्र से इतना कम है तो जो बच्चे आंगनबाडी तक नहीं पहंुच पाते उनका क्या हाल होगा। आंगनबाडियों में बच्चों का समय-समय पर वजन नहीं किया जाता है। कार्यकर्ता को ठीक से प्रशिक्षण नहीं मिलने के कारण उसे यह ज्ञान भी नहीं है कि सामान्य बच्चे का वजन कितना होना चाहिए। आंगनबाडियों के रजिस्टरों में भी सभी आंकडे व्यवस्थित नहीं होते है। किसी में वजन दर्ज है तो उम्र ठीक से नहीं लिखी है और कद का उल्लेख तो किसी आंगनबाडी के रजिस्टर में देखने को नहीं मिला। जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक बच्चों के कद और वजन के आधार पर उनके स्वस्थ होने का आंकलन करना चाहिए। लेकिन आंगनबाडी कार्यकर्ता को ही इसकी जानकारी नहीं है। गांव में जब महिलाओं से पूछा कि आपके बच्चे का वजन कब तुला था तो उन्हें यह भी नहीं पता। कईयों ने बताया कि दो महीने पहले तोला था तो किसी ने बताया कि क्या पता कब किया था।
होशंगाबाद जिले का पिपरिया विकासखंड जिसमें करीब 150 गांव शामिल है, यहां के सामुदायिक अस्पताल की पोषक प्रशिक्षक चंद्रावति दुबे ने बताया कि आंगनबाडियों में कुपोषित बच्चों को सामान्य बच्चों से अधिक विटामिन और पोषण आहार की जरूरत होती है, लेकिन उन्हें नहीं दिया जाता है । पोषण पुर्नवास कंेद्र में रिंकी खटीक अपनी कुपोषित बच्ची सीआ का तीसरा फालोअप कराने आई जांच के बाद सीआ जिसकी उम्र एक वर्ष है और उसका वजन 5.670 था जबकि नियमानुसार उसका वजन करीब 7.3 होना चाहिए। उसका एमयूएसी मिड अंडर आर्म सरकमफेंस 10.5 था। यूनीसेफ की गाइड लाइन कहती है कि 1-5 वर्ष तक के बच्चों का मध्य बाह का घेरा 11.5 से उपर होना चाहिए। इलाज होने के बाद बच्ची कमजोर मालूम पड रही थी तो जो यहां तक नहीं पहुंच पाते उनकी क्या हालत होती होगी। यूनीसेफ द्वारा कद और वजन के मुताबिक कुछ स्टेंडर्ड डेविएशन तय किए गए है उसके तहत 45 सेमी की उंचाई वाले बच्चे का वजन 2.50 ग्राम होना चाहिए यदि 1.90 ग्राम है तो उसे -3एसडी माना जाएगा।
यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। चाहे डापका, तरौन या रिछैडा लगभग सभी गांवों में कुपोषित बच्चे है। आंकडों के मुताबिक भी अनुसूचित जाति जनजाति इलाकों के बच्चे अधिक कुपोषित है। सीएचसी के मिले आंकडों के अनुसार वर्ष 2009 में एसटी के 87 कुपोषित बच्चे भर्ती हुए। इसका सबसे बडा कारण पोषण आहार नहीं मिलना है। वहीं बच्चों को भी देते है। पोषण प्रशिक्षक का कहना है कि संपूर्ण पोषण आहार में दाल, चावल, सब्जी, रोटी और सलाद होता है, लेकिन इन बस्तीयों के लोगों को रोटी ही बडी मुश्किल से नसीब हो रही है। जिनके पास राशन कार्ड है उन्हें 30 किलो के बजाए 20 किलो गेंहू और 5 किलो के बजाए डेढ दो किलो शक्कर मिलती है और जिनके पास कार्ड नहीं है उन्हें तो खाने के लिए और मशक्कत करना पडता है। पिपरिया के सामुदायिक अस्पताल के आंकडो के मुताबिक पिपरिया विकासखंड में 4184 कम वजन और 967 अति कम वजन वाले बच्चे है। होशंगाबाद जिले में करीब 3022 बच्चे कुपोषित है। वहीं एनएफएचएस 3 के अनुसार कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश 60.3 के साथ देश में पहले स्थान पर है।
हमारे देश में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम आईसीडीएस चलता है जिसका मुख्य उददेश्य गर्भवती व धात्री महिलाओं और छोटे बच्चों में पोषण की हालत को सुधारना है। गांवों व शहरों में यह कार्यक्रम आंगनबाडी केंद्रों द्वारा संचालित होता है। आईसीडीएस कार्यक्रम 1975 से कार्यरत है लेकिन 40 साल बाद भी देश के हालात में कोई खास अंतर नहीं आया है। आंगनबाडी कार्यकर्ता का प्रमुख जिम्मेदारी स्वास्थ्य व पोषण शिक्षा, महिलाओं को स्तनपान के लिए प्ररित करना और 6 माह की उम्र के बाद के बच्चे को अद्र्व ठोस आहार देेन पोषण संबंधी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है। जिस मुख्य उददेश्य के साथ एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम की शुरूआत हुई ताकि कुपोषण पर रोक लगाई जा सके, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। कुपोषण के मामले आए दिन सामने आ रहे हैै। माता-पिता के पास रोजगार का साधन नहीं होने के कारण पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिल पाना, स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाना, कम उम्र में गर्भवति होना, गर्भवस्था के दौरान मां की उचित देखभाल नहीं होना ही गांवों के बच्चों में होने वाले कुपोषण का सबसे बडा कारण है।
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