Wednesday, August 4, 2010
कुपोषण के साथ जीने की मजबूरी
यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। मध्यप्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है।
दीपक की मां बडे भोलेपन के साथ कहती है कि हर आठ-पंद्रह दिन मंे जाहेे कछु ना कछु होत रहत है। कछु पीरो सो भी रहत है और बहुत कमजोर है। नन्ही बाई अपने बेटे दीपक के बारे में कहती है कि इलाज चल रओ है मगर कछु अंतर समझ नहीं पड रओ। नन्ही बाई और उनके पति दोनों मजदूरी करते है और 30-40 रूपए की आमदनी है। दीपक डेढ साल का है और उसका कद 28 इंच है और वजन 6 किलो है। नन्हीबाई ने बताया कि गरीबी रेखा का कार्ड भी नहीं बना है तो कंटोल से राशन भी नहीं मिलता मजदूरी के भरोसे ही चल रहे है। कभी चटनी तो कभी रूखी रोटी खाते है। वे कहती है कि महीने चढे होने के बाद भी मजदूरी पर जाते है नहीं जाएंगे तो खांएगे क्या। हरीजन बस्ती की महिलाएं बताती है कि कई बार तो ऐसा हुआ कि मजूरी से आए और अस्पताल भी नहीं जा पांए और बच्चा हो गया। दीपक को 14 दिन तक पिपरिया के पोषण पुर्नवास केंद्र में रखा गया था और चार बार फालोअप के लिए भी गई थी। लेकिन अभी भी दीपक की हालत सुधरी नहीं है। नन्ही बाई से पूछा कि दीपक को खाने में क्या - क्या देती हो तो बोली जो हम खाते है वही देते है। कभी रोटी दाल तो कभी चावल । जब पूछा कि डाक्टर ने क्या बताया था तो कहती है उनने तो बताया था मगर जो होगा वहीं तो खांएगे। पोषण पुर्नवास क्यों नही ले जाती तो नन्ही बाई कहती है कि डाक्टर ने कहा कि अब ठीक हो जाऐगा। दरअसल नन्ही बाई का बेटा दीपक कुपोषित है। लेकिन वह नहीं जानती कि उसका बेटा कुपोषण का शिकार है। होशंगाबाद जिले के पिपरिया से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम पचुआ में महिलाओं के हालात ऐसे ही है। वहां की महिलाएं बस यह जानती है कि उनका बच्चा कमजोर है मगर बीमारी के कारण से वह पूरी तरह अंजान है। हालात यह है कि गांव की आंगनबाडी भी पिछले एक महीने से नहीं लग रही है। जिले के ऐसे ग्राम जहां पहुंच मार्ग नहीं है वहां स्वास्थ्य सेवाएं पूरी तरह लचर है और जिम्मेदार अधिकारियों को वहां के हालातों को जानने में कोई रूचि नहीं है।
कुपोषण की स्थिति जानने के लिए जिले के कुछ ग्रामों का दौरा किया तो सभी जगह स्थिति बहुत गंभीर नजर आई। खासतौर पर पहुंच वहीन गांवों के हालात तो बहुत बदतर है। यहां गरीबों को देखने वाला कोई नहीं है जबकि एनएफएचएस 3 के मुताबिक प्रदेश 60.3 प्रतिशत के साथ कुपोषण के मामले में सबसे आगे है। हरिजन बस्ती और मजदूर वर्ग के बच्चे अधिक कमजोर पाएं गए क्योंकि इन महिलाओं को गर्भवति होने के दौरान और सामान्य दिनों में भी पोषण आहार नहीं मिलता है यहीं वजह है कि बच्चों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। जबकि यूनिसेफ की गाइडलाइन के मुताबिक कुपोषित बच्चों को भरपूर पोषण आहार मिलना चाहिए, उन्हे हाई फाइबर युक्त भोजन , फल और हरी सब्जियां अधिक से अधिक खिलाना चाहिए । पचुआ में टीकाकरण कराने पहुंची भागवती बाई की तीन लडकिया है और यह चैथा है। भागवती 27 बरस की है और उनका वजन 35 किलो है और कद 4.8 इंच है। जब उनसे भोजन के बारे में पूछा तो कहा मजदूरी करके जितना कमा लेते है उसी हिसाब से भोजन हो पाता है। कभी 30 तो कभी 50 रूपए मिलते है उसी आधार पर घर चलाते है। वे बताती है कि गर्भावस्था के दौरान भी भोजन में किसी प्रकार का अंतर नहीं आया है। जबकि जनस्वास्थ्य सहयोग संस्था द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार मेहनत करने वाली गर्भवति महिला को 575 ग्राम अनाज, 50 ग्राम दाल, 50 ग्राम तेल और 100 ग्राम भाजी खाना चाहिए। नेशनल रिसर्च काउंसिल सब कमेटी आॅफ यूएसए के मुताबिक गर्भवति महिला को 2400 किलो कैलोरी एनर्जी, 1000 ग्राम विटामिन ए, 1200 मिली ग्राम कैल्श्यिम आदि मिलना जरूरी है लेकिन जिनके पास रोजगार का स्थाई साधन नहीं है उन्हें जब जैसा काम मिलता है कर लेते है। ऐसे में पोषण आहार और गर्भावस्था के दौरान बरती जाने वाली सावधानियां वह कैसे रखेंगी और जब तक मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं होगी तब तक बच्चे के स्वस्थ होने की कल्पना करना बेकार है।
आंगनबाडी के रिकार्ड भी इस बात को पुख्ता करते है कि बच्चों का विकास उम्र के मुताबिक नहंी हो रहा है। जब पिपरिया विकासखंड से सटे ग्राम डापका की आंगनबाडी का औचक निरीक्षण किया गया तो वहां दर्ज बच्चों का वजन उम्र के लिहाज से काफी कम है। रिकार्ड के मुताबिक 5 वर्ष की रूबी का वजन 12.40, 5 वर्ष के पंकज का वजन 13 किलो है जबकि विशेषज्ञों के मुताबिक इस उम्र में बच्चों का वजन 20.2 के करीब होना चाहिए। जब आंगनबाडी में आने वाले बच्चों का वजन ही उम्र से इतना कम है तो जो बच्चे आंगनबाडी तक नहीं पहंुच पाते उनका क्या हाल होगा। आंगनबाडियों में बच्चों का समय-समय पर वजन नहीं किया जाता है। कार्यकर्ता को ठीक से प्रशिक्षण नहीं मिलने के कारण उसे यह ज्ञान भी नहीं है कि सामान्य बच्चे का वजन कितना होना चाहिए। आंगनबाडियों के रजिस्टरों में भी सभी आंकडे व्यवस्थित नहीं होते है। किसी में वजन दर्ज है तो उम्र ठीक से नहीं लिखी है और कद का उल्लेख तो किसी आंगनबाडी के रजिस्टर में देखने को नहीं मिला। जबकि डब्ल्यूएचओ के मुताबिक बच्चों के कद और वजन के आधार पर उनके स्वस्थ होने का आंकलन करना चाहिए। लेकिन आंगनबाडी कार्यकर्ता को ही इसकी जानकारी नहीं है। गांव में जब महिलाओं से पूछा कि आपके बच्चे का वजन कब तुला था तो उन्हें यह भी नहीं पता। कईयों ने बताया कि दो महीने पहले तोला था तो किसी ने बताया कि क्या पता कब किया था।
होशंगाबाद जिले का पिपरिया विकासखंड जिसमें करीब 150 गांव शामिल है, यहां के सामुदायिक अस्पताल की पोषक प्रशिक्षक चंद्रावति दुबे ने बताया कि आंगनबाडियों में कुपोषित बच्चों को सामान्य बच्चों से अधिक विटामिन और पोषण आहार की जरूरत होती है, लेकिन उन्हें नहीं दिया जाता है । पोषण पुर्नवास कंेद्र में रिंकी खटीक अपनी कुपोषित बच्ची सीआ का तीसरा फालोअप कराने आई जांच के बाद सीआ जिसकी उम्र एक वर्ष है और उसका वजन 5.670 था जबकि नियमानुसार उसका वजन करीब 7.3 होना चाहिए। उसका एमयूएसी मिड अंडर आर्म सरकमफेंस 10.5 था। यूनीसेफ की गाइड लाइन कहती है कि 1-5 वर्ष तक के बच्चों का मध्य बाह का घेरा 11.5 से उपर होना चाहिए। इलाज होने के बाद बच्ची कमजोर मालूम पड रही थी तो जो यहां तक नहीं पहुंच पाते उनकी क्या हालत होती होगी। यूनीसेफ द्वारा कद और वजन के मुताबिक कुछ स्टेंडर्ड डेविएशन तय किए गए है उसके तहत 45 सेमी की उंचाई वाले बच्चे का वजन 2.50 ग्राम होना चाहिए यदि 1.90 ग्राम है तो उसे -3एसडी माना जाएगा।
यूनिसेफ के मुताबिक विकसित देशों में 150 मिलीयन बच्चे कुपोषण का शिकार है । जैसा कि हम सभी जानते भारत साउथ एशिया में बसा हुआ है जहां करीब 78 मिलीयन बच्चे कुपोषित है। भारत में तीन साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा कुपोषित हैै। यहां पांच साल से कम उम्र के करीब 55 मिलीयन बच्चे है जो आस्टेलिया की जनसंख्या का ढाई गुना है। विश्व के 35 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में रहते है। चाहे डापका, तरौन या रिछैडा लगभग सभी गांवों में कुपोषित बच्चे है। आंकडों के मुताबिक भी अनुसूचित जाति जनजाति इलाकों के बच्चे अधिक कुपोषित है। सीएचसी के मिले आंकडों के अनुसार वर्ष 2009 में एसटी के 87 कुपोषित बच्चे भर्ती हुए। इसका सबसे बडा कारण पोषण आहार नहीं मिलना है। वहीं बच्चों को भी देते है। पोषण प्रशिक्षक का कहना है कि संपूर्ण पोषण आहार में दाल, चावल, सब्जी, रोटी और सलाद होता है, लेकिन इन बस्तीयों के लोगों को रोटी ही बडी मुश्किल से नसीब हो रही है। जिनके पास राशन कार्ड है उन्हें 30 किलो के बजाए 20 किलो गेंहू और 5 किलो के बजाए डेढ दो किलो शक्कर मिलती है और जिनके पास कार्ड नहीं है उन्हें तो खाने के लिए और मशक्कत करना पडता है। पिपरिया के सामुदायिक अस्पताल के आंकडो के मुताबिक पिपरिया विकासखंड में 4184 कम वजन और 967 अति कम वजन वाले बच्चे है। होशंगाबाद जिले में करीब 3022 बच्चे कुपोषित है। वहीं एनएफएचएस 3 के अनुसार कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश 60.3 के साथ देश में पहले स्थान पर है।
हमारे देश में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम आईसीडीएस चलता है जिसका मुख्य उददेश्य गर्भवती व धात्री महिलाओं और छोटे बच्चों में पोषण की हालत को सुधारना है। गांवों व शहरों में यह कार्यक्रम आंगनबाडी केंद्रों द्वारा संचालित होता है। आईसीडीएस कार्यक्रम 1975 से कार्यरत है लेकिन 40 साल बाद भी देश के हालात में कोई खास अंतर नहीं आया है। आंगनबाडी कार्यकर्ता का प्रमुख जिम्मेदारी स्वास्थ्य व पोषण शिक्षा, महिलाओं को स्तनपान के लिए प्ररित करना और 6 माह की उम्र के बाद के बच्चे को अद्र्व ठोस आहार देेन पोषण संबंधी स्थिति में उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया है। जिस मुख्य उददेश्य के साथ एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम की शुरूआत हुई ताकि कुपोषण पर रोक लगाई जा सके, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। कुपोषण के मामले आए दिन सामने आ रहे हैै। माता-पिता के पास रोजगार का साधन नहीं होने के कारण पर्याप्त पोषण आहार नहीं मिल पाना, स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाना, कम उम्र में गर्भवति होना, गर्भवस्था के दौरान मां की उचित देखभाल नहीं होना ही गांवों के बच्चों में होने वाले कुपोषण का सबसे बडा कारण है।
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Great Effort MAM....!
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