Friday, August 20, 2010

मैं , मेरे पापा और गैलडुब्बा............

बस.............. अब इसके आगे गाडी नहीं जाएंगी तो कैसे जाएंगे। अब आपको करीब 500-600 मीटर नीचे पैदल ही जाना होगा । चलो सिंधौली में किसी कमांडर वाले से बात करते है शायद वह पहुंचा सकें । सिंधौली का कोई भी डाईवर चलने को तैयार नहीं हुआ । आखिरकार उतना रास्ता पैदल ही तय करने का निश्चय हुआ। पहाड का शार्टकट रास्ता बताने के लिए सिंधौली से एक लडका हमारे साथ चलने के लिए तैयार हो गया । यह वाक्या मप्र के छिंदवाडा जिले में तामिया ब्लाक स्थित पतालकोट के ग्राम गैलडुब्बा की यात्रा का है। यह यात्रा ता जिंदगी मेरे जहन में ताजी रहेगी। दरअसल मेरी फैलोशिप के सिलसिले में मै गैलडुब्बा जाना चाहती थी तो पापा ने कहा कि वहां अकेली कैसे जाएंगी। गाडी से चलते है तो तय हुआ कि हम गाडी से जाएंगे। सुबह 10 बजे करीब पिपरिया गृह निवास से गैलडुब्बा के लिए निकले मेरे साथ मेरे पापा और डाईवर भईया थे।
पहाड उतरते वक्त मेरे जहन में कई सवाल घूम रहे थे कि आखिर कैसी जगह होगी कैसे लोग होंगे वे किस तरह रहते होंगे। पैदल रास्ता तय करने में मुझे सिर्फ यहीं चिंता हो रही थी कि पापा मेरे कारण परेशान हो रहे है क्यांेकि इस तरह का उबड-खाबड रास्ता जब मै तय नहीं कर पा रही तो उन्हें कितनी परेशानी हो रही होगी । पापा बार-बार उस लडके से पूछ रहे थे कि इसके बाद कितना रास्ता और बाकी है। रही सही कसर पानी ने पूरी कर दी । उस दिन रह रहकर पानी गिर रहा था, खैर ज्यादा तेज बरसात नहीं हुई। पहाड उतरते वक्त यहीं डर लग रहा था कि यदि पैर फिसला तो सीधे नीचे पहुंचेगे। किसी तरह पहाड का रास्ता पूरा हुआ अब बाकी का रास्ता रोड से ही तय करना था क्योंकि इसके बाद कोई शार्टकट नहीं था। रोड पर आने के बाद मैने कुछ राहत की सांस ली और अब प्रकृति के अविस्मरणीय दृश्यों को देखते ही थकान धीरे-धीरे उतर रही थी। नीचे से पहाड और हरियाली को देखना कितना सुखद था इसका वर्णन शब्दों में करना तो मेरे लिए आसान नहीं होगा, लेकिन वहां के हर एक दृश्य आज भी मेरी आंखों में तैर जाते हैं । प्रकृति के साथ के बीच करीब 2 घंटे चलने के बाद गैलडुब्बा आ ही गया और मैंने देखा कि निर्माणाधीन बिल्डिंग में मजदूर कार्य कर रहे है। पूछने पर पता चला कि छात्रावास की बिल्डिंग बन रही है। दरअसल जब मुख्यमंत्री इस क्षेत्र मे आएं तो कई घोषणाएं करके गए थे यह उनमें से एक है।
आगे बढने पर थोडी उपर की ओर छात्रावास था जब मैंने छात्रावास में कदम रखा तो देखा कि बच्चे पलग के गददे हटाकर उस पर बस्ता रखकर बैठे है। तीन कमरों में स्कूल चल रहा है यह स्कूल आंठवी तक है और एक कक्ष में हर कक्षा के बच्चे मिल जाएंगे । पांच शिक्षकों का स्टाफ है, लेकिन आज दो ही शिक्षिकाएं स्कूल संभाल रही थी। दोनों शिक्षिकाएं तामिया से आती है और दोनों ने बताया कि कई बार यहीं रूक जाते है काम नहीं रहता तो घर चले जाते है। यहां से कर्रापानी तक तो पैदल ही जाना पडता है। कोई साधन नहीं है शुरूआत में तो आने में काफी थक जाते थे अब धीरे-धीरे आदत पड रही है। घरों के बीच दूरी अधिक होने के कारण हर घर में जाना तो संभव नहीं था तो कुछ घरों में जाना हुआ। यहां भारिया आदिवासी रहते है। यहां हर एक घर के बीच करीब आधे से एक किलोमीटर का अंतर है। यहां के आदिवासी उचित मूल्य की दुकानों से मिलने वाले राशन और मक्का ही ज्यादातर खाते है। ये लोग हिन्दी भी समझते है और यहां स्कूल और आंगनबाडी भी है। यहां सब हेल्थ सेंटर भी है, लेकिन वहां किसी तरह की सुविधाएं नहीं है। कुछ समय से टीकाकरण कार्यक्रम तो हो रहा है, लेकिन बरसात में कई दिनों तक नहीं हो पाता । यहां से उपर आने - जाने की सुविधा नहीं होने के कारण एक टस्ट ने आॅटो दान में दिया है, लेकिन आॅटो में डीजल नहीं होने के कारण भी कई बार पैदल ही जाना पडता है। कर्रापानी तक जाना यहां के रहवासियों की आदत में शुमार हो चुका है। आने-जाने की सुविधा नहीं होने के कारण गर्भावस्था के दौरान काॅफी समस्याएं आती है। सबसे बडी बात तो यह कि कई बार महिलाएं पहाड चढकर अस्पताल जाती है। ऐसे में यदि कोई अनहोनी हो जाएं तो कौन उसकी जिम्मेदारी लेगा। वहीं कुछ पुरूषों ने बताया कि कई बार उठा कर भी ले जाना पडता है। ग्रामवासियों ने बताया कि तबीयत खराब में भी ऐसे ही जाना पडता हैै। जब साधन ही नहीं मिलते तो क्या करें ।
क्षेत्र में अटूट प्राकृतिक सौंदर्यता है, जिस ओर देखों आंखों में चमक आ जाती है और हरियाली देखकर मन खिल उठता है। वहां से वापस लौटते समय मेरी चढने की बिल्कुल हिम्मत नहीं थी, लेकिन चढना तो था। हमारे साथ आएं लडके ने पूछा कि पहाड चढना आपके लिए कठिन होगा तो मैंने भी कहा कि ठीक है कच्चे रास्ते से ही चलते है। चढने में पापा और मैं पूरे पसीने में नहा लिए थे और वह लडका आराम से चढ रहा था । जब आखिरी चढाव बचा था तब पापा ने उससे कहा कि तुम चले जाओ हम लोग धीरे-धीरे आते हैं। वह तो फटा-फट चढ गया और दो -तीन मिनिट बाद ही वह दिखना बंद हो गया। तभी वहीं से बांसुरी की सुरिली धुन सुनाई पडी नीचे की ओर देखा तो एक ग्वाला जो गायों को घास चराने लाया था वह बांसुरी बजा रहा था। उसकी बांसुरी की तान प्रकृति की सुंदरता मंे चार चांद लगा रही थी। ऐसा माहौल मैंने पहली बार देखा था। अब धीरे-धीरे गाडी दिखाई देने लगी थी और मेरे पैरों ने भी जवाब दे दिया था। उपर पहुंचकर जब नीचे की ओर देखा तो अपार सौंदर्य ऐसा लग रहा था मानो यही स्वर्ग है। तभी आसमान की ओर देखा तो नीला और सफेद रंग का मिलाव अत्यंत सुंदर लग रहा था। तामिया और उसके आसपास के गांवों की प्राकृतिक सौंदर्यता का तो कोई सानी नहीं है। हर एक पल प्रकृति के बहुरंगे और सुंदर दृश्य देखने को मिलते जो आंखों में ऐसे बस जाते है कि भुलाए नहीं भुलते और फिर गैलडुब्बा की यात्रा तो मेरे जहन में हमेशा ताजी रहेगी।

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